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चतुर्थ अंक

मगध में राजकीय उपवन—कल्याणी

कल्याणी—मेरे जीवन के दो स्वप्न थे—दुर्दिन के बाद आकाश के नक्षत्र-विलास-सी चन्द्रगुप्त की छवि, और पर्वतेश्वर से प्रतिशोध, किन्तु मगध की राजकुमारी आज अपने ही उपवन में बन्दिनी है! मैं वही तो हूँ—जिसके संकेत पर मगध का साम्राज्य चल सकता था! वही शरीर है, वही रूप है, वही हृदय है, पर छिन गया अधिकार और मनष्य का मान दंड ऐश्वर्य। अब तुलना में सबसे छोटी हूँ। जीवन लज्जा की रंगभूमि बन रहा है। (सिर झुका लेती है) तो जब नन्दवंश का कोई न रहा, तब एक राजकुमारी बचकर क्या करेगी?

(मद्यप की-सी चेष्टा करती हुई पर्वतेश्वर को प्रवेश करते हुए देख चुप हो जाती है।)

पर्वतेश्वर—मगध मेरा है—आधा भाग मेरा है! और मुझसे कुछ पूछा तक न गया! चन्द्रगुप्त अकेले सम्राट्‌ बन बैठा। कभी नहीं, यह मेरे जीते-जी नहीं हो सकता। (सामने देखकर) कौन है? यह कोई अप्सरा होगी! अरे कोई अपदेवता न हो!

(प्रस्थान)

कल्याणी—मगध के राज-मन्दिर उसी तरह खड़े हैं, गंगा शोण से उसी स्नेह से मिल रही है; नगर का कोलाहल पूर्ववत्‌ है। परन्तु न रहेगा एक नन्द-वंश! फिर क्या करूँ? आत्महत्या करूँ? नहीं, जीवन इतना सस्ता नहीं। अहा, देखो—वह मधुर आलोकवाला चन्द्र! उसी प्रकार नित्य—जैसे एकटक इसी पृथ्वी को देख रहा हो। कुमुदबन्धु!