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चतुर्थ अंक
 

[गाती है—]

सुधा-सीकर से नहला दो!
लहरें डूब रही हों रस में,
रह न जायँ वे अपने वश में,
रूप-राशि इस व्यथित हृदय-सागर को—
बहला दो!
अन्धकार उजला हो जाये,
हँसी हंसमाला मँडराए,
मधुराका आगमन कलरवों के मिस—
कहला दो!
करुणा के अंचल पर निखरे,
घायल आँसू हैं जो बिखरे,
ये मोती बन जायँ, मृदुल कर से लो—
सहला दो!


(पर्वतेश्वर का फिर प्रवेश)

पर्व॰—तुम कौन हो सुन्दरी? मैं भ्रमवश चला गया था।

कल्याणी—तुम कौन हो?

पर्व॰—पर्वतेश्वर।

कल्याणी—मैं हूँ कल्याणी, जिसे नगर-अवरोध के समय तुमने बन्दी बनाया था।

पर्व॰—राजकुमारी! नन्द की दुहिता तुम्हीं हो?

कल्याणी—हाँ पर्वतेश्वर।

पर्व॰—तुम्हीं से मेरा विवाह होनेवाला था?

कल्याणी—अब यम से होगा!

पर्व॰—नहीं सुन्दरी, ऐसा भरा हुआ यौवन!

कल्याणी—सब छीन कर अपमान भी!