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चतुर्थ अंक
 


राक्षस—यह मैं मान लेता, कदाचित्‌ इस पर पूर्ण विश्वास भी कर लेता, परन्तु सुवसिनी, मुझे शंका है। चाणक्य का तुम्हारा बाल्यपरिचय है। तुम शक्तिशाली की उपासना...

सुवा॰—ठहरो अमात्य! मैं चाणक्य को इधर तो एक प्रकार से विस्मृत ही हो गयी थी, तुम इस सोयी हुई भ्रान्ति को न जगाओ!

(प्रस्थान)

राक्षस—चाणक्य भूल सकता है? कभी नहीं। वह राजनीति का आचार्य हो जाय, वह विरक्त तपस्वी हो जाय, परन्तु सुवासिनी का चित्र-यदि अंकित हो गया है तो उहूँ—(सोचता है।)

(नेपथ्य से गान)

कैसी कड़ी रूप की ज्वाला?
पड़ता है पतंगा सा इसमें मन होकर मतवाला,
सान्ध्य-गगन-सी रागमयी यह बड़ी तीव्र है हाला,
लौह-श्रृंखला से न कड़ी क्या यह फूलों की माला?

राक्षस—(चैतन्य होकर)—तो चाणक्य से फि मेरी टक्कर होगी, होने दो! यह अधिकारी सुखदायी होगा। आज से हृदय का यही ध्येय रहा। शकटार से किस मुँह से प्रस्ताव करूँ! वह सुवासिनी को मेरे हाथ में सौंप दे, यह असम्भव है! तो मगध में फिर एक आँधी आवे! चलूँ, चन्द्रगुप्त भी तो नहीं है, चन्द्रगुप्त सम्राट्‌ हो सकता है, तो दूसरे भी इसके अधिकारी हैं। कल्याणी की मृत्यु से बहुत से लोग उत्तेजित हैं। आहुति की आवश्यकता है, बह्नि प्रज्वलित है।

(प्रस्थान)