पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/१८१

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परिषद्‌-गृह

राक्षस—(प्रवेश करके)—तो आप लोगों की सम्मति है कि विजयोत्सव न मनाया जाय? मगध का उत्कर्ष, उसके गर्व का दिन, यों ही फीका रह जाय!

शकटार—मैं तो चाहता हूँ, परन्तु आर्य्य चाणक्य की सम्मति इसमें नहीं है।

कात्यायन—जो कार्य बिना किसी आडम्बर के हो जाय, वही तो अच्छा है।

[मौर्य्य सेनापति और उसकी स्त्री का प्रवेश]

मौर्य्य—विजयी होकर चन्द्रगुप्त लौट रहा है, हम लोग आज भी उत्सव न मनाने पावेंगे? राजकीय आवरण में यह कैसी दासता है?

मौर्य्य-पत्नी—तब यही स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कौन इस साम्राज्य का अधीश्वर है! विजयी चन्द्रगुप्त अथवा यह ब्राह्मण या परिषद्‌?

चाणक्य—(राक्षस की ओर देखकर) राक्षस, तुम्हारे मन में क्या है?

राक्षस—मैं क्या जानूँ, जैसी सब लोगों की इच्छा।

चाणक्य—मैं अपने अधिकार और दायित्व को समझ कर कहता हूँ कि यह उत्सव न होगा।

मौर्य्य-पत्नी—तो मैं ऐसी पराधीनता में नहीं रहना चाहती (मौर्य्य से) समझा न! हम लोग आज भी बन्दी हैं।

मौर्य्य—(क्रोध से)—क्या कहा, बन्दी? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता? हम लोग चलते हैं। देखूँ किसकी सामर्थ्य है जो रोके! अपमान से जीवित रहना मौर्य्य नहीं जानता है। चलो—

(दोनों का प्रस्थान)

[चाणक्य और कात्यायन को छोड़कर सब जाते हैं।]