खेल में भी हारने के समय रोते हुए हँस दिया करतीं और तब मैं हार स्वीकार कर लेता। इधर तो तुम्हारा अभिनय का अभ्यास भी बढ़ गया है! तब तो... (देखने लगता है)।
सुवा॰—यह क्या, विष्णुगुप्त, तुम संसार को अपने वश में करने का संकल्प रखते हो। फिर अपने को नहीं? देखो दर्पण लेकर—तुम्हारी आँखों में तुम्हारा यह कौन-सा नवीन चित्र है।
[प्रस्थान]
चाणक्य—क्या? मेरी दुर्बलता? नहीं! कौन है?
दौवारिक—(प्रवेश करके)—जय हो आर्य्य, रथ पर मालविका आयी है।
चाणक्य—उसे सीधे मेरे पास लिवा लाओ!
[दौवारिक का प्रस्थान—एक चर का प्रवेश]
चर—आर्य्य सम्राट् के पिता और माता दोनों व्यक्ति रथ पर अभी बाहर गये हैं (जाता है)।
चाणक्य—जाने दो! इनके रहने से चन्द्रगुप्त के एकाधिपत्य में बाधा होती। स्नेहातिरेक से वह कुछ-का-कुछ कर बैठता।
(दूसरे चर का प्रवेश)
दूसरा—(प्रणाम करके)—जय हो आर्य्य, वाल्हीक में नयी हलचल है। विजेता सिल्यूकस अपनी पश्चिमी राजनीति से स्वतंत्र हो गया है, अब वह सिकन्दर के पूर्वी प्रान्तों की ओर दत्तचित्त है। वाल्हीक की सीमा पर नवीन यवन-सेना के शस्त्र चमकने लगे हैं।
चाणक्य—(चौंक कर) और गांधार का समाचार?
दूसरा—अभी कोई नवीनता नहीं है।
चाणक्य—जाओ। (चर का प्रस्थान) क्या उसका भी समय आ गया? तो ठीक है। ब्राह्मण! अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रह! कुछ चिन्ता नहीं, सब सुयोग आप ही चले आ रहे हैं।
[ऊपर देखकर हँसता है, मालविका का प्रवेश]