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चतुर्थ अंक
 

[मालविका गाती है—]

मधुप कब एक कली का है!
पाया जिसमें प्रेम रस, सौरभ और सुहाग,
बेसुध हो उस कली से, मिलता भर अनुराग,
विहारी कुञ्जगली का है!
कुसुम धूल से धूसरित, चलता है उस राह,
काँटों में उलझा, तदपि, रही लगन की चाह,
बावला रंगरली का है।
हो मल्लिका, सरोजिनी, या यूथी का पुञ्ज,
अलि को केवल चाहिए, सुखमय क्रीडा-कुञ्ज,
मधुप कब एक कली का है!


चन्द्र॰—मालविका, मन मधुप से भी चंचल और पवन से भी प्रगतिशील है, वेगवान है।

माल॰—उसका निग्रह करना ही महापुरुषों का स्वभाव है देव!

[प्रतिहारी का प्रवेश और संकेत—मालविका उससे बात करके लौटती है]

चन्द्र॰—क्या है?

माल॰—कुछ नहीं, कहती थीं कि यह प्राचीन राज-मन्दिर अभी परिष्कृत नहीं, इसलिए मैंने चन्द्रसौंध में आपके शयन का प्रबन्ध करने के लिए कह दिया है।

चन्द्र॰—जैसी तुम्हारी इच्छा—(पान करता हुआ) कुछ और गाओ मालविका! आज तुम्हारे स्वर में स्वर्गीय मधुरिमा है।

[मालविका गाती है—]

बज रही बंशी आठों याम की।
अब तक गूँज रही है बोली प्यारे मुख अभिराम की।
हुए चपल मृगनैन मोह-वश बजी विपंची काम की,
रूप-सुधा के दो दृग प्यालों ने ही मति बेकाम की!


बज रही बंशी॰—