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चन्द्रगुप्त
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(कंचुकी का प्रवेश)

कंचुकी—जय हो देव, शयन का समय हो गया।

[प्रतिहारी और कंचुकी के साथ चन्द्रगुप्त का प्रस्थान]

माल॰—जाओ प्रियतम! सुखी जीवन बिताने के लिए, और मैं रहती हूँ चिर-दुःखी जीवन का अन्त करने के लिए। जीवन एक प्रश्न है, और मरण है उसका अटल उत्तर। आर्य्य चाणक्य की आज्ञा है—"आज घातक इस शयन-गृह में आवेंगे, इसलिए चन्द्रगुप्त यहाँ न सोने पावें,और षड्‌यन्त्रकारी पकड़े जायँ।"(शय्या पर बैठकर)—यह चन्द्रगुप्त की शय्या है। ओह, आज प्राणों में कितनी मादकता है! मैं... कहाँ हूँ? कहाँ? स्मृति, तू मेरी तरह सो जा! अनुराग, तू रक्त से भी रंगीन बन जा!

[गाती है—]

ओ मेरी जीवन की स्मृति! ओ अन्तर के आतुर अनुराग!
बैठ गुलाबी विजन उषा में गाते कौन मनोहर राग?
चेतन सागर उर्मिल होता यह कैसी कम्पनमय तान,
यों अधीरता से न भीड़ लो अभी हुए हैं पुलकित प्रान।
कैसा है यह प्रेम तुम्हारा युगल मूर्ति की बलिहारी।
यह उन्मप विलास बता दो कुचलेगा किसकी क्यारी?
इस अनन्त निधि के हे नाविक, हे मेरे अनंग अनुराग!
पाल सुनहला बन, तनती है, स्मृति यों उस अतीत में जाग।
कहाँ ले चले कोलाहल से मुखरित तट को छोड़ सुदूर,
आह! तुम्हारे निर्दय डाँडों से होती हैं लहरें चूर।
देख नहीं सकते तुम दोनों चकित निराशा है भीमा,
बहको मत क्या न है बता दो क्षितिज तुम्हारी नव सीमा?

शयन