पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/१८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
चन्द्रगुप्त
१८८
 


चन्द्र॰—हँसिए मत! गुरुदेव! आपकी मर्यादा रखनी चाहिए, यह मैं जानता हूँ। परन्तु वे मेरे माता-पिता थे, यह आपको भी जानना चाहिए।

चाणक्य—तभी तो मैंने उन्हें उपयुक्त अवसर दिया। अब उन्हें आवश्यकता थी शान्ति की, उन्होंने वानप्रस्थाश्रम ग्रहण किया है। इसमें खेद करने की कौन बात है?

चन्द्र॰—यह अक्षुण्ण अधिकार आप कैसे भोग रहे हैं? केवल साम्राज्य का ही नहीं, देखता हूँ, आप मेरे कुटुम्ब का भी नियंत्रण अपने हाथों में रखना चाहते हैं।

चाणक्य—चन्द्रगुप्त! मैं ब्राह्मण हूँ! मेरा साम्राज्य करुणा का था, मेरा धर्म प्रेम का था। आनन्द-समुद्र में शान्ति-द्वीप का अधिवासी ब्राह्मण मैं, चन्द्र-सूर्य-नक्षत्र मेरे दीप थे, अनन्त आकाश वितान था, शस्यश्यामला कोमला विश्वम्भरा मेरी शय्या थी। बौद्धिक विनोद कर्म था, सन्तोष धन था। उस अपनी, ब्राह्मण की, जन्म-भूमि को छोड़कर कहाँ आ गया! सौहार्द के स्थान पर कुचक्र, फूलों के प्रतिनिधि काँटे, प्रेम के स्थान में भय। ज्ञानामृत के परिवर्तन में कुमंत्रणा। पतन और कहाँ तक हो सकता है! ले लो मौर्य्य चन्द्रगुप्त! अपना अधिकार, छीन लो। यह मेरा पुनर्जन्म होगा। मेरा जीवन राजनीतिक कुचक्रों से कुत्सित और कलंकित हो उठा है। किसी छायाचित्र, किसी काल्पनिक महत्व के पीछे भ्रमपूर्ण अनुसंधान करता दौड़ रहा हूँ! शान्ति खो गयी, स्वरूप विस्मृत हो गया? जान गया, मैं कहाँ और कितने नीचे हूँ। (प्रस्थान)

चन्द्र॰—जाने दो। (दीर्घ निश्वास लेकर)—तो क्या मैं असमर्थ हूँ? ऊँह, सब हो जायगा।

सिंहरण—(प्रवेश करके) सम्राट्‌ की जय हो! कुछ विद्रोही और षड्‌यन्त्रकारी पकड़े गये हैं। एक बड़ी दुखद घटना भी हो गयी है!

चन्द्रगुप्त—(चौंक कर)—क्या?