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चतुर्थ अंक
 


सिंह॰—मालविका की हत्या... (गद्‌गद्‌ कंठ से)—आपका परिच्छद पहन कर वह आप ही की शय्या पर लेटी थी।

चन्द्रगुप्त—तो क्या, उसने इसीलिए मेरे शयन का प्रबन्ध दूसरे प्रकोष्ठ में किया! आह! मालविका!

सिंह॰—आर्य्य चाणक्य की सूचना पाकर नायक पूरे गुल्म के साथ राज-मन्दिर की रक्षा के लिए प्रस्तुत था। एक छोटा-सा युद्ध होकर वे हत्यारे पकड़े गये। परन्तु उनका नेता राक्षस निकल भागा ।

चन्द्र॰—क्या! राक्षस उनका नेता था?

सिंह॰—हाँ सम्राट्‌! गुरुदेव बुलाये जायँ!

चन्द्र॰—वही तो नहीं हो सकता, वे चले गये। कदाचित्‌ न लौटेंगे।

सिंह॰—ऐसा क्यों? क्या आपने कुछ कह दिया?

चन्द्रगुप्त—हाँ सिंहरण! मैंने अपने माता-पिता के चले जाने का कारण पूछा था।

सिंह॰—(निःश्वास लेकर)—तो नियति कुछ अदृष्ट का सृजन कर रही है! सम्राट्‌, मैं गुरुदेव को खोजने जाता हूँ!

चन्द्रगुप्त—(विरक्ति से)—जाओ, ठीक है - अधिक हर्ष, अधिक उन्नति के बाद ही तो अधिक दुःख और पतन की बारी आती है!

[सिंहरण का प्रस्थान]

चन्द्र॰—पिता गये, माता गयी, गुरुदेव गये, कन्धे-से-कन्धा भिड़ाकर प्राण देने वाला चिर-सहचर सिंहरण गया! तो भी चन्द्रगुप्त को रहना पड़ेगा, और रहेगा, परन्तु मालविका! आह, वह स्वर्गीय कुसुम!

[चिन्तित भाव से प्रस्थान]