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चन्द्रगुप्त
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अलका—यही तो—(समवेत स्वर से गायन)

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती—
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला
स्वतन्त्रता पुकारती—


अमर्त्य वीरपुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञा सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है—बढ़े चलो बढ़े चलो।


असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ,
विकीर्ण दिव्य दाह-सी।
सपूत मातृभूमि के—
रुको न शूर साहसी!


अराति सैन्य सिन्धू में—सुवाड़वाग्नि—से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो—बढ़े चलो, बढ़े चलो।


(सब का प्रस्थान)

आम्भीक—यह अलका है! तक्षशिला में उत्तेजना फैलाती हुई—यह अलका!

चाणक्य—हाँ आम्भीक! तुम उसे बन्दी बनाओ, मुँह बन्द करो।

आम्भीक—(कुछ सोचकर) असम्भव! मैं भी साम्राज्य में सम्मिलित होऊँगा।

चाणक्य—यह मैं कैसे कहूँ? मेरी लक्ष्मी-अलका ने आर्य्य गौरव के लिए क्या-क्या कष्ट नहीं उठाये। वह भी तो इसी वंश की बालिका है। फिर तुम तो पुरुष हो, तुम्हीं सोचकर देखो।

आम्भीक—व्यर्थ का अभिमान अब मुझे देश के कल्याण में बाधक न सिद्ध कर सकेगा। आर्य्य चाणक्य, मैं आर्य्य-साम्राज्य के बाहर नहीं हूँ।

चाणक्य—तब तक्षशिला-दुर्ग पर मगध-सेना अधिकार करेगी। यह तुम सहन करोगे?

[आम्भीक सिर निचा करके विचारता है]