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चतुर्थ अंक
 


चाणक्य—क्षत्रिय! कह देना और बात है, करना और।

आम्भीक—(आवेश में)—हार चुका ही हूँ, पराधीन हो ही चुका हूँ। अब स्वदेश के अधीन होने में उससे अधिक कलंक तो मुझे लगेगा नहीं, आर्य्य चाणक्य!

चाणक्य—तो इस गांधार और पंचनद का शासन-सूत्र होगा अलका के हाथ में और तक्षशिला होगी उसकी राजधानी, बोलो, स्वीकार है?

आम्भीक—अलका?

चाणक्य—हाँ, अलका। और सिंहरण इस महाप्रदेश के शासक होंगे।

आम्भीक—सब स्वीकार है, ब्राह्मण! मैं केवल एक बार यवनों के सम्मुख अपना कलंक धोने का अवसर चाहता हूँ। रण-क्षेत्र में एक सैनिक होना चाहता हूँ। और कुछ नहीं।

चाणक्य—तुम्हारा अभीष्ट पूर्ण हो!

[संकेत करता है—सिंहरण और अलका का प्रवेश]

अलका—भाई! आम्भीक!

आम्भीक—बहन! अलका! तू छोटी है, पर मेरी श्रद्धा का आधार है। मैं भूल करता था बहन! तक्षशिला के लिए अलका पर्याप्त है,आम्भीक की आवश्यकता न थी!

अलका—भाई, क्या कहते हो!

आम्भीक—मैं देशद्रोही हूँ। नीच हूँ। अधम हूँ! तूने गांधार के राजवंश का मुख उज्ज्वल किया है। राज्यासन के योग्य तू ही है।

अलका—भाई! अब भी तुम्हारा भ्रम नहीं गया! राज्य किसी का नहीं है, सुशासन का है! जन्मभूमि के भक्तों में आज जागरण है। देखते नहीं, प्राच्य में सूर्योदय हुआ है! स्वयं सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त तक इस महान आर्य्य-साम्राज्य के सेवक हैं। स्वतंत्रता के युद्ध में सैनिक और सेनापति का भेद नहीं। जिसकी खड्‌ग-प्रभा में विजय का आलोक चमकेगा, वही वरेण्य है। उसी की पूजा होगी। भाई! तक्षशिला मेरी नहीं