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चतुर्थ अंक
 


सुवा॰—सम्राट्‌ को अभी तक आपका पता नहीं, पिताजी ने इसीलिए मुझे भेजा है। उन्होंने कहा—जिस खेल को आरम्भ किया है, उसका पूर्ण और सफल अन्त करना चाहिए।

चाणक्य—क्यों करें सुवासिनी, तुम राक्षस के साथ सुखी जीवन बिताओगी, यदि इतनी भी मुझे आशा होती... वह तो यवन-सेनानी है, और तुम मगध की मन्त्रि-कन्या! क्या उससे परिणय कर सकोगी?

सुवा॰—(निःश्वास लेकर)—राक्षस से! नहीं, असम्भव! चाणक्य तुम इतने निर्दय हो!

चाणक्य—(हँसकर)—सुवासिनी! वह स्वप्न टूट गया—इस विजन बालुका-सिन्धु मं एक सुधा की लहर दौड़ पड़ी थी, किन्तु तुम्हारे एक भू-भंग ने उसे लौटा दिया! मैं कंगाल हूँ (ठहरकर)—सुवासिनी! मैं तुम्हें दण्ड दूँगा। चाणक्य की नीति में अपराधों के दण्ड से कोई मुक्त नहीं।

सुवा॰—क्षमा करो विष्णुगुप्त।

चाणक्य—असम्भव है। तुम्हें राक्षस से ब्याह करना ही होगा, इसी में हमारा-तुम्हारा और मगध का कल्याण है।

सुवा॰—निष्ठुर! निर्दय!!

चाणक्य—(हँसकर)—तुम्हें अभिनय भी करना पड़ेगा। उसमें समस्त सञ्चित कौशल का प्रदर्शन करना होगा। सुवासिनी, तुम्हें बन्दिनी बन कर ग्रीक-शिविर में राक्षस और राजकुमारी के पास पहुँचना होगा—राक्षस को देशभक्त बनाने के लिए और राजकुामरी की पूर्वस्मृति में आहुति देने के लिए। कार्नेलिया चन्द्रगुप्त से परिणीता होकर सुखी हो सकेगी कि नहीं, इसकी परीक्षा करनी होगी।

[सुवासिनी सिर पकड़ कर बैठ जाती है]

चाणक्य—(उसके सिर पर हाथ रखकर)—सुवासिनी! तुम्हारा प्रणय, स्त्री और पुरुष के रूप में केवल राक्षस से अंकुरित हुआ, और