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चन्द्रगुप्त
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शैशव का वह सब, केवल हृदय की स्निग्धता थी। आज किसी कारण से राक्षस का प्रणय द्वेष में बदल रहा है, परन्तु काल पाकर वह अंकुर हरा-भरा और सफल हो सकता है! चाणक्य यह नहीं मानता कि कुछ असम्भव है। तुम राक्षस से प्रेम करके सुखी हो सकती हो, क्रमशः उस प्रेम का सच्चा विकास हो सकता है। और मैं, अभ्यास करके तुमसे उदासीन हो सकता हूँ, यही मेरे लिए अच्छा होगा। मानव हृदय में यह भाव-सृष्टि तो हुआ ही करती है। यही हृदय का रहस्य है, तब हम लोग जिस सृष्टि में स्वतंत्र हों, उसमें परवशता क्यों मानें? मैं क्रूर हूँ, केवल वर्तमान के लिए, भविष्य के सुख और शान्ति के लिए, परिणाम के लिए नहीं। श्रेय के लिए, मनुष्य को सब त्याग करना चाहिए, सुवासिनी! जाओ!

सुवा॰—(दीनता से चाणक्य का मुँह देखती है)—तो विष्णुगुप्त, तुम इतना बड़ा त्याग करोगे। अपने हाथों बनाया हुआ, इतने बड़े साम्राज्य का शासन हृदय की आकांक्षा के साथ अपने प्रतिद्वन्द्वी को सौंप दोगे! और सो भी मेरे लिए!

चाणक्य—(घबड़ाकर)—मैं बड़ा विलम्ब कर रहा हूँ। सुवासिनी, आर्य्य दाण्डयायन के आश्रम में पहुँचने के लिए मैं पथ भूल गया हूँ। मेघ के समान मुक्त वर्षा-सा जीवन-दान, सूर्य के समान अबाध आलोक विकीर्ण करना, सागर के समान कामना, नदियों को पचाते हुए सीमा के बाहर न जाना, यही तो ब्राह्मण का आदर्श है। मुझे चन्द्रगुप्त को मेघमुक्त चन्द्र देख कर, इस रंग-मंच से हट जाना है।

सुवा॰—महापुरुष! मैं नमस्कार करती हूँ। विष्णुगुप्त, तुम्हारी बहन तुमसे आशीर्वाद की भिखारिन है। (चरण पकड़ती है)

चाणक्य—(सजल नेत्र से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए)—सुखी रहो।

(प्रस्थान)