पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/२०५

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ग्रीक-शिविर

कार्ने०––एलिस! यहाँ आने पर जैसे मन उदास हो गया है। इस सध्या के दृश्य ने मेरी तन्मयता में एक स्मृति की सूचना दी है। सरला सध्या, पक्षियों के नाद से शान्ति को बुलाने लगी है। देखते-देखते, एक-एक करके दो-चार नक्षत्र उदय होने लगे। जैसे प्रकृति, अपनी सृष्टि की रक्षा, हीरो की कील से जुडी हुई काली ढाल लेकर कर रही है और पवन किसी मधुर कथा का भार लेकर मचलता हुआ जा रहा है। यह कहाँ जायगा एलिस!

एलिस––अपने प्रिय के पास!

कार्ने०––दुर! तुझे तो प्रेम-ही-प्रेम सूझता है।

[ दासी का प्रवेश ]

दासी––राजकुमारी! एक स्त्री वन्दी होकर आई है।

कार्ने०––( आश्चर्य से )––तो उसे पिताजी ने मेरे पास भेजा होगा, उसे शीघ्र ले आओ!

[ दासी का प्रस्थान ; सुवासिनी का प्रवेश ]

कार्ने०––तुम्हारा नाम क्या है?

सुवा०––मेरा नाम सुवासिनी हैं। मैं किसी को खोजने जा रही थी, सहसा वन्दी कर ली गई। वह भी कदाचित् आपके यहाँ वन्दी हो!

कार्ने०––उसका नाम?

सुवा०––राक्षस।

कार्ने०––ओहो, तुमने उससे व्याह कर लिया है क्या? तब तो तुम सचमुच अभागिनी हो!

सुवा०––( चौंककर )––ऐसा क्यों? अभी तो व्याह होनेवाला है, क्या आप उसके सम्बन्ध में कुछ जानती है?

कार्ने०––बैठो, बताओ, तुम वन्दी बन कर रहना चाहती हो, या मेरी सखी? झटपट बोलो!