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चतुर्थ अंक
 

सुवा०––बन्दी बनकर तो आई हूँ, यदि सखी हो जाऊँ तो अहोभाग्य!

कार्ने०––प्रतिज्ञा करनी होगी कि मेरी अनुमति के बिना तुम व्याह न करोगी!

सुवा०––स्वीकार है।

कार्ने०––अच्छा, अपनी परीक्षा दो, बताओ, तुम विवाहिता स्त्रियो को क्या समझती हो?

सुवा––बनियो के प्रमोद का कटा-छंटा हुआ शोभावृक्ष। कोई डाली उल्लास के आगे बढी, कुतर दी गई! माली के मन से सँवरे हुए गोल-मटोल खड़े रहो!

कार्ने०––वाह, ठीक कहा। यही तो मैं भी सोचती थी। क्यो एलिस! अच्छा, यौवन और प्रेम को क्या समझती हो?

सुवा०––अकस्मात् जीवन-कानन में, एक राका-रजनी की छाया में छिप कर मधुर वसन्त घुस आता है। शरीर की सब क्यारियाँ हरीभरी हो जाती है। सौन्दर्य का कोकिल―‘कौन?’ कहकर सब को रोकने-टोकने लगता है, पुकारने लगता है। राजकुमारी! फिर उसी में प्रेम का मुकुल लग जाता है, ऑसू-भरी स्मृतियाँ मकरद-सी उसमे छिपी रहती है।

कार्ने०––( उसे गले लगाकर )––आह सखी! तुम तो कवि हो। तुम प्रेम करना जानती हो और जानती हो उसका रहस्य। तुमसे हमारी पटेगी। एलिस! जा, पिताजी से कह दे, कि मैंने उस स्त्री को अपनी सखी बना लिया।

[ एलिस का प्रस्थान ]

सुवा––राजकुमारी! प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीस उठती है, वही तो प्रेम का प्राण है। आश्चर्य तो यह है कि प्रत्येक कुमारी के हृदय में वह निवास करती हैं। पर, उसे सब प्रत्यक्ष नही कर सकती, सब को उसका मार्मिक अनुभव नहीं होता।

कार्ने०––तुम क्या कहती हो?