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चन्द्रगुप्त
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सुवा॰—वही स्त्री-जीवन का सत्य है। जो कहती है कि मैं नहीं जानती—वह दूसरे को तो धोखा देती ही है, अपने को भी प्रवंचित करती है। धधकते हुए रमणी-वक्ष पर हाथ रख कर उसी कम्पन में स्वर मिला कर कामदेव गाता है। और राजकुमारी! वही काम-संगीत की तान सौन्दर्य की रंगीन लहर बनकर, युवतियों के मुख में लज्जा और स्वास्थ्य की लाली चढ़ाया करती है।

कार्ने॰—सखी! मदिरा की प्याली में तू स्वप्न-सी लहरों को मत आन्दोलित कर। स्मृति बड़ी निष्ठुर है। यदि प्रेम ही जीवन का सत्य है, तो संसार ज्वालामुखी है।

[सिल्यूकस का प्रवेश]

सिल्यू॰—तो बेटी, तुमने इसे अपने पास रख ही लिया। मन बहलेगा, अच्छा तो है। मैं भी इसी समय जा रहा हूँ, कल ही आक्रमण होगा। देखो, सावधान रहना।

कार्ने॰—किस पर आक्रमण होगा पिताजी?

सिल्यू॰—चन्द्रगुप्त की सेना पर। वितस्ता के इस पार सेना आ पहुँची है, अब युद्ध में विलम्ब नहीं।

कार्ने॰—पिताजी, उसी चन्द्रगुप्त से युद्ध होगा, जिसके लिए उस साधु ने भविष्यवाणी की थी? वही तो भारत का राजा हुआ न?

सिल्यू॰—हाँ बेटी, वही चन्द्रगुप्त।

कार्ने॰—पिताजी, आप ही ने मृत्यु-मुख से उसका उद्धार किया था और उसी ने आपके प्राणों की रक्षा की थी?

सिल्यू॰—हाँ, वही तो।

कार्ने॰—और उसी ने आपकी कन्या के सम्मान की रक्षा की थी? फिलिप्स का वह अशिष्ट आचरण पिताजी!

सिल्यू॰—तभी तो बेटी, मैंने साइवर्टियस को दूत बनाकर समझाने के लिए भेजा था। किन्तु उसने उत्तर दिया कि मैं सिल्यूकस का कृतज्ञ