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युद्ध-क्षेत्र के समीप चाणक्य और सिंहरण
चाणक्य—तो युद्ध आरम्भ हो गया?
सिंह॰—हाँ आर्य्य! प्रचण्ड-विक्रम से सम्राट ने आक्रमण किया है। यवनसेना थर्रा उठी है। आज के युद्ध में प्राणों को तुच्छ गिन कर वे भीम पराक्रम का परिचय दे रहे हैं। गुरुदेव! यदि कोई दुर्घटना हुई तो? आज्ञा दीजिए, अब मैं अपने को नहीं रोक सकता। तक्षशिला और मालवों की चुनी हुई सेना प्रस्तुत है, किस समय काम आवेगी?
चाणक्य—जब चन्द्रगुप्त की नासीर सेना का बल क्षय होने लगे और सिन्धु के इस पार की यवनों की समस्त सेना युद्ध में सम्मिलत हो जाय, उसी समय आम्भीक आक्रमण करे। और तुम चन्द्रगुप्त का स्थान ग्रहण करो। दुर्ग की सेना सेतु की रक्षा करेगी, साथ ही चन्द्रगुप्त को सिन्धु के उस पार जाना होगा—यवन-स्कन्धावार पर आक्रमण करने! समझे?
(सिंहरण का प्रस्थान)
[चर का प्रवेश]
चर—क्या आज्ञा है?
चाणक्य—जब चन्द्रगुप्त की सेना सिन्धु के उस पार पहुँच जाय, तब तुम्हें ग्रीकों के प्रधान-शिविर की ओर उस आक्रमण को प्रेरित करना होगा। चन्द्रगुप्त के पराक्रम की अग्नि में घी डालने का काम तुम्हारा है।
चर—जैसी आज्ञा—(प्रस्थान)।
[दूसरे चर का प्रवेश]
चर—देव! राक्षस प्रधान-शिविर में है।
चाणक्य—जाओ, ठीक है। सुवासिनी से मिलते रहो।
(दोनों का प्रस्थान)
[एक ओर से सिल्यूकस, दूसरी ओर से चन्द्रगुप्त]
सिल्यू॰—चन्द्रगुप्त, तुम्हें राजपद की बधाई देता हूँ।
च॰ १४