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शिविर का एक अंश
[चिन्तित भाव से राक्षस का प्रवेश]

राक्षस—क्या होगा? आग लग गयी है, बुझ न सकेगी? तो मैं कहाँ रहूँगा? क्या हम सब ओर से गए?

सुवासिनी—(प्रवेश करके)—सब ओर से गये राक्षस! समय रहते तुम सचेत न हुए!

राक्षस—तुम कैसे सुवासिनी!

सुवा॰—तुम्हें खोजते हुए बन्दी बनायी गई। अब उपाय क्या है? चलोगे?

राक्षस—कहाँ सुवासिनी? इधर खाई, उधर पर्वत! कहाँ चलूँ?

सुवा॰—मैं इस युद्ध-विप्लव से घबरा रही हूँ। वह देखो, रण-वाद्य बज रहे हैं। यह स्थान भी सुरक्षित नहीं। मुझे बचाओ राक्षस—(भय का अभिनय करती है)

राक्षस—(उसे आश्वासन देते हुए)—मेरा कर्तव्य मुझे पुकार रहा है। प्रिये, मैं रणक्षेत्र से भाग नहीं सकता, चन्द्रगुप्त के हाथों से प्राण देने में ही कल्याण है! किन्तु तुमको...

[इधर-उधर देखता है, रण-कोलाहल]

सुवा॰—बचाओ!

राक्षस—(निःश्वास लेकर)—अदृष्ट! दैव प्रतिकूल है। चलो सुवासिनी!

(दोनों का प्रस्थान)
[एकाकिनी कार्नेलिया का प्रवेश]
(रण-शब्द)

कार्ने॰—यह क्या! पराजय न हुई होती तो शिविर पर आक्रमण कैसे होता?—(विचार करके)—चिन्ता नहीं, ग्रीक-बालिका भी प्राण देना जानती है। आत्म-सम्मान—ग्रीस का आत्म-सम्मान जिये!—