(छुरी निकालती है)――तो अन्तिम समय एक बार नाम लेने में कोई अपराध है?――चन्द्रगुप्त!
चन्द्र०—―यह क्या!――(छुरी ले लेता है)――राजकुमारी!
कार्ने०――निर्दय हो चन्द्रगुप्त! मेरे बूढे पिता की हत्या कर चुके होगे! सम्राट् हो जाने पर आँखे रक्त देखने की प्यासी हो जाती है न!
चन्द्र०――राजकुमारी! तुम्हारे पिता आ रहे है।
कार्ने०――(हाथों से मुँँह छिपाकर)――आह! विजेता सिल्यूकस को भी चन्द्रगुप्त के हाथों से पराजित होना पड़ा।
सिल्यू०――हाँ वेटी!
चन्द्र――वन-सम्राट्। अर्य्य कृतघ्न नही होते। आपको सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देना ही मेरा कर्तव्य था। सिन्धु के इस पार अपने सेना निवेश में आप है, मेरे वन्दी नही! मैं जाता हूँ।
सिल्यू०――इतनी महत्ता।
चन्द्र०――राजकुमारी। पिताजी को विश्राम की आवश्यकता है। फिर हम लोग मित्रों के समान मिल सकते है।
[चन्द्रगुप्त का सैनिकों के साथ प्रस्थान; कार्ने लिया उसे देखती रहती है]