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चन्द्रगुप्त
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हैं और ज्ञान-ज्योति निर्मल हैं। तो क्या मेरा कर्म कुलाल-चक्र अपना निर्मित भाण्ड उतारकर बर चुका? ठीक तो, प्रभात-पवन के साथ सब की सुख-कामना शान्ति का आलिंगन कर रही है। देव! आज मैं धन्य हूँ।

[ दूसरी ओर झाड़ी में मौर्य्या ]

[मौर्य्य―ढोग हैं! रक्त और प्रतिशोध, क्रूरता और मृत्यु का खेल देखते ही जीवन बीता, अब क्या मैं इस सरल पथ पर चल सकूँगा? यह ब्राह्मण आँख मूँँदने-खोलने का अभिनय भले ही करे, पर मैं! असम्भव है। अरे, जैसे मेरा रक्त खौलने लगा! हृदय में एक भयानक चेतना, एक अबजा का अट्टहास, प्रतिहिंसा जैसे नाचने लगी! वह, एक साधारण मनुष्य, दुर्बल कंकाल, विश्व के समूचे शस्त्र-बल को तिरस्कृत किये बैठा है! रख दू गले पर खड्ग, फिर देखूँ तो यह प्राणभिक्षा माँगता है या नहीं] सम्राट चन्द्रगुप्त के पिता की अवज्ञा! नहीं-नही, ब्रह्महत्या होगी, हो; मेरा प्रतिशोध और चन्द्रगुप्त का निष्कटक राज्य!――

[ छुरी निकाल कर चाणक्य को मारना चाहता है, सुवासिनी दौड़कर उसका हाथ पकड़ लेती है। दूसरी ओर से अलका, सिहरण, अपनी माता के साथ चन्द्रगुप्त का प्रवेश ]

चन्द्रगुप्त―(आश्चर्य और क्रोध से)—यह क्या पिताजी! सुवा- सिनी! वोलो, वात क्या हैं?

सुवा०—मैने देखा कि सेनापति, आर्य्य चाणक्य को मारना ही चाहते हैं, इसलिए मैने इन्हे रोका!

चन्द्र०—गुरुदेव, प्रणाम! चन्द्रगुप्त क्षमा का भिखारी नही, न्याय करना चाहता है। बतलाइए, पूरा विवरण सुनना चाहता हूँ, और पिताजी, आप शस्त्र रख दीजिए! सिंहरण! (सिंंहरण अगे बढता है)।

चाणक्य―(हँस कर)―सम्राट्! न्याय करना तो राजा का कर्तव्य है; परन्तु यहाँ पिता और गुरु का सम्वन्य है, कर सकोगे?

चन्द्र०―पिताजी!

मौर्य्य―हाँ चन्द्रगुप्त, मैं इस उद्धत ब्राह्मण का―सब की अवज्ञा