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चतुर्थ अंक
 

करने वाले महत्वाकांक्षी का—वध करना चाहता था। कर न सका, इसका दुःख है। इस कुचक्रपूर्ण रहस्य का अन्त न कर सका।

चन्द्र॰—पिताजी, राज्य-व्यस्था आप जानते होंगे—वध के लिए प्राणदण्ड होता है, और आपने गुरुदेव का—इस आर्य्य-साम्राज्य के निर्माण-कर्ता ब्राह्मण का—वध करने जाकर कितना गुरुतर अपराध किया है!

चाणक्य—किन्तु सम्राट्‌, वह वध हुआ नहीं, ब्राह्मण जीवित है। अब यह उसकी इच्छा पर है कि वह व्यवहार के लिए न्यायाधिकरण से प्रार्थना करे या नहीं।

चन्द्रगुप्त-जननी—आर्य्य चाणक्य!

चाणक्य—ठहरो देवी!—(चन्द्रगुप्त से)—मैं प्रसन्न हूँ वत्स! यह मेरे अभिनय का दण्ड था। मैंने आज तक जो किया, वह न करना चाहिए था, उसी का महाशक्ति-केन्द्र ने प्रायश्चित करना चाहा। मैं विश्वस्त हूँ कि तुम अपना कर्त्तव्य कर लोगे। राजा न्याय कर सकता है, परन्तु ब्राह्मण क्षमा कर सकता है।

राक्षस—(प्रवेश करके)—आर्य्य चाणक्य! आप महान्‌ हैं, मैं आपका अभिनन्दन करता हूँ। अब न्यायाधिकरण से, अपने अपराध—विद्रोह का दण्ड पाकर सुखी रह सकूँगा। सम्राट्‌ आपकी जय हो!

चाणक्य—सम्राट्‌, मुझे आज का अधिकार मिलेगा?

चन्द्र॰—आज वही होगा, गुरुदेव, जो आज्ञा होगी।

चाणक्य—मेरा किसी से द्वेष नहीं, केवल राक्षस के सम्बन्ध में अपने पर सन्देह कर सकता था, आज उसका भी अन्त हो। सम्राट्‌ सिल्यूकस आते ही होंगे, उसके पहले ही हमें अपना सब विवाद मिटा देना चाहिए।

चन्द्र॰—जैसी आज्ञा।

चाणक्य—आर्य्य शकटार के भावी जामाता अमात्य राक्षस के लिए मैं अपना मन्त्रित्व छोड़ता हूँ। राक्षस! सुवासिनी को सुखी रखना।

[सुवासिनी और राक्षस चाणक्य को प्रणाम करते हैं]