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चन्द्रगुप्त
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मौर्य्य—और मेरा दण्ड? आर्य्य चाणक्य, मैं क्षमा ग्रहण न करूँ, तब? आत्महत्या करूँगा!

चाणक्य—मौर्य्य! तुम्हारा पुत्र आज आर्य्यावर्त्त का सम्राट्‌ है—अब और कौन-सा सुख तुम देखना चाहते हो? काषाय ग्रहण कर लो, इसमें अपने अभिमान को मारने का तुम्हें अवसर मिलेगा। वत्स चन्द्रगुप्त! शस्त्र दो आमात्य राक्षस को!

[मौर्य्य शस्त्र फेंक देता है। चन्द्रगुप्त शस्त्र देता है। राक्षस-सविनय ग्रहण करता है]

सब—सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त मौर्य्य की जय!

[प्रतिहारी का प्रवेश]

प्रति॰—सम्राट्‌ सिल्यूकस शिविर से निकल चुके हैं।

चाणक्य—उनकी अभ्यर्थना राजमन्दिर में होनी चाहिए, तपोवन में नहीं।

चन्द्र॰—आर्य्य, आप उस समय न उपस्थित रहेंगे?

चाणक्य—देखा जायगा।

[सबका प्रस्थान]