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राज-सभा
[एक ओर से सपरिवार चन्द्रगुप्त, और दूसरी ओर से साइवर्टियस, मेगास्थनीज, एलिस और कार्नेलिया के साथ सिल्यूकस का प्रवेश; सब बैठते हैं]
चन्द्र॰—विजेता सिल्यूकस का मैं अभिनन्दन करता हूँ—स्वागत!
सिल्यू॰—सम्राट् चन्द्रगुप्त! आज मैं विजेता नहीं, विजित से अधिक भी नहीं! मैं सन्धि और सहायता के लिए आया हूँ।
चन्द्र॰—कुछ चिन्ता नहीं सम्राट्, हम लोग शस्त्र-विनिमय करचुके, अब हृदय का विनिमय...
सिल्यू॰—हाँ, हाँ, कहिए!
चन्द्र॰—राजकुमारी, स्वागत! मैं उस कृपा को नहीं भूल गया, जो ग्रीक-शिविर में रहने के समय मुझे आप से प्राप्त हुई थी।
सिल्यू॰—हाँ कार्नी! चन्द्रगुप्त उसके लिए कृतज्ञता प्रगट कर रहे हैं।
कार्ने॰—मैं आपको भारतवर्ष का सम्राट् देखकर कितनी प्रसन्न हूँ।
चन्द्र॰—अनुगृहीत हुआ (सिल्यूकस से) औंटिगोनस से युद्ध होगा। सम्राट् सिल्यूकस, गज-सेना आपकी सहायता के लिए जायगी। हिरात में आपके जो प्रतिनिधि रहेंगे, उनसे समाचार मिलने पर और भी सहायता के लिए आर्य्यवर्त्त प्रस्तुत है।
सिल्यू॰—इसके लिए धन्यवाद देता हूँ। सम्राट् चन्द्रगुप्त, आज से हम लोग दृढ़ मैत्री के बन्धन में बँधे! प्रत्येक का दुःख-सुख, दोनों का होगा, किन्तु एक अभिलाषा मन में रह जायगी।
चन्द्र॰—वह क्या?
सिल्यू॰—उस बुद्धिसागर, आर्य्य-साम्राज्य के महामंत्री, चाणक्य को देखने की बड़ी अभिलाषा थी।