पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४


प्रजा बने थे । और वह था उनका राजा। उन्ही लडको मे से वह किसी को घोडा और किसी को हाथी बनाकर चढता और दण्ड तथा पुरस्कार आदि देने का राजकीय अभिनय कर रहा था। उसी ओर से चाणक्य जा रहे थे। उन्होने उस बालक की राजकीडा बड़े ध्यान से देखी। उनके मन में कुतूहल हुआ और कुछ विनोद भी । उन्होने ठीक-ठीक ब्राह्मण की तरह उस बालक राजा के पास जाकर याचना की--"राजन्, मुझे दूध पीने के लिए गऊ चाहिए।” बालक ने राजोचित उदारता का अभिनय करते हुए सामने चरती हुई गौओ को दिखलाकर कहा---“इनमे से जितनी इच्छा हो, तुम ले लो ।”

ब्राह्मण ने हँसकर कहा-–राजन्, ये जिसकी गाये है, वह मारने लगे तो ?

बालक ने सगर्व छाती फुलाकर कहा--किसका साहस है जो मेरे शासन को न माने ? जब मैं राजा हूँ, तब मेरी आज्ञा अवश्य मानी जायगी ।

ब्राह्मण ने आश्चर्यपूर्वक बालक से पूछा--राजन्, आपका शुभ नाम क्या है ?

तब तक बालक की माँ वहाँ आ गई, और ब्राह्मण से हाथ जोड़कर बोली--्--महाराज, यह बड़ा धृप्ट लड़का है, इसके किसी अपराध पर ध्यान न दीजिएगा।

चाणक्य ने कहा--कोई चिन्ता नहीं, यह बड़ा होनहार बालक है ।इसकी मानसिक उन्नति के लिए तुम इसे किसी प्रकार राजकुल में भेजा करो।

उसकी माँ रोने लगी। बोली--हम लोगो पर राजदोष है, और हमारे पति राजा की आज्ञा से बन्दी किए गए हैं।

ब्राह्मण ने कहा--बालक का कुछ अनिष्ट न होगा, तुम इसे अवन्य राजकुल में ले जाओ ।

इतना कह, बालक को आशीर्वाद देकर चाणक्य चले गये ।

बालक की माँ वहुत डरते-डरते एक दिन, अपने चंचल और सहमी लड़के को लेकर राजसभा में पहुँची ।