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नन्द एक निष्ठुर, मूर्ख और त्रासजनक राजा था। उसकी राजसभा बड़े-बड़े चापलूस मूर्खों से भरी रहती थी।

पहले के राजा लोग एक-दूसरे के बल, बुद्धि और वैभव की परीक्षा लिया करते थे और इसके लिए वे तरह-तरह के उपाय रचते थे। जब बालक माँ के साथ राजसभा में पहुँचा, उसी समय किसी राजा के यहाँ से नन्द की राजसभा की बुद्धि का अनुमान करने के लिए, लोहे के बन्द पिंजड़े में मोम का सिंह बनाकर भेजा गया था और उसके साथ यह कहलाया गया था कि पिजड़े को खोले बिना ही सिंह को निकाल लीजिए।

सारी राजसभा इसपर विचार करने लगी, पर उन चाटुकार मूर्ख सभासदो को कोई उपाय न सूझा। अपनी माता के साथ वह बालक यह लीला देख रहा था। वह भला कब मानने वाला? उसने कहा—"मैं निकाल दूँगा।"

सब लोग हँस पड़े। बालक की ढिठाई भी कम न थी। राजा को भी आश्चर्य हुआ।

नन्द ने कहा—यह कौन है?

मालूम हुआ कि राजबन्दी मौर्य्य-सेनापति का यह लड़का है। फिर क्या, नन्द की मूर्खता की अग्नि में एक और आहुति पड़ी। क्रोधित होकर वह बोला—यदि तू इसे न निकाल सकेगा, तो तू भी इस पिंजड़े में बन्द कर दिया जायगा।

उसकी माता ने देखा कि यह भी कहाँ से विपत्ति आई, परन्तु बालक निर्भीकता से आगे बढ़ा और पिंजड़े के पास जाकर उसको भलीभाँति देखा। फिर लोहे की शलाकाओं को गरम करके उस सिंह को गलाकर पिंजड़े को खाली कर दिया।[१]


  1. "मधूच्छिष्टमय धातु जीवन्तमिव पञ्जरे। सिंहमादाय नन्देभ्य प्राहिणोत्सिहलाधिप। यो द्रावयेदिम क्रूर द्वारमनुद्घाटय पंजर। सर्वोऽस्ति कश्चित्सुमतिरित्येव सदिदेशच। चन्द्रगुप्तस्तु मेधावी तप्तायसशलाकया। व्यलापयत्पञ्जरस्थ व्यस्मयन्त ततोऽखिला।"