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सब लोग चकित रह गये ।

राजा ने पूछा----तुम्हारा नाम क्या है ?

बालक ने कहा--चन्द्रगुप्त ।

ऊपर के विवरण से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त किशोरावस्था में नन्दों की सभा में रहता था। वहाँ उसने अपनी विलक्षण बुद्धि का परिचय दिया ।

पिप्पली-कानन के मौर्य्य लोग नन्दो के क्षत्रिय-नाशकारी शासन से पीडित थे, प्राय सब दबाए जा चुके थे । उस समय ये क्षत्रिय राजकुल नन्दो की प्रधान शक्ति से आक्रान्त थे। मौर्य्य भी नन्दो की विशाल वाहिनी में सेनापति का काम करते थे । सम्भवत् वे किसी कारण से राजकोष मे पड़े थे और उनका पुत्र चन्द्रगुप्त नन्द की राजसभा में अपना समय बिताता था । उसके हृदय में नन्दो के प्रति घृणा का होना स्वाभाविक था । जस्टिनस ने लिखा है--

When by his insolent behaviour he has offended. Nandas, and was ordered by king to be put to death he sought safety by a speedy flight (Justinus X V )

चन्द्रगुप्त ने किसी वाद-विवाद वा अनबन के कारण नन्द को क्रुद्ध कर दिया और इस बात में वौद्ध लोगों का विवरण, ढुण्ढि का उपोद्घात, तथा ग्रीक इतिहास लेखक सभी सहमत है कि उसे राज- क्रोध के कारण पाटलीपुत्र छोड़ना पडा ।

शकटार और वररुचि के सम्बन्ध की कथाएँ, जो कथा-सरित्सागर में मिलती है, इस बात का संकेत करती है कि महापद्म के पुत्र बड़े उच्छृङखल और क्रूर शासक थे । गुप्त पड्यन्त्रो से मगध पीङित था। राजकुल में भी नित्य नया उपद्रव, विरोध ओर द्वन्द्व चला करते थे, उन्हीं कारणो से चन्द्रगुप्त की भी कोई स्वतत्र परिस्थिति उसे भावी नियति की ओर अग्रसर कर रही थी। चाणक्य की प्रेरणा में चन्द्रगुप्त ने सीमाप्रान्न की ओर प्रस्थान किया।

महावश के अनुसार बुद्ध-निर्वाण के १४० वर्ष बाद अन्तिम नन्द