पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/४

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श्रीः


प्रकाशक का वक्तव्य

'प्रसाद' जी न केवल कवि, कहानी-लेखक, उपन्यासकार अथवा नाटककार ही हैं; बल्कि वे इतिहास के मौलिक अन्वेषक भी हैं। हिन्दी में चन्द्रगुप्त मौर्य के सम्बन्ध में विशद् ऐतिहासिक विवेचना सब से पहले 'प्रसाद' जी ने ही की थी―यह उस समय की बात है, जब चाणक्य-लिखित अर्थ-शास्त्र का आविष्कार-मात्र हुआ था, एवं पुरातत्त्व के देशी अथवा विदेशी विद्वान्, चन्द्रगुप्त के विषय में उदासीन-से थें। स॰ १९६६ में 'प्रसाद' जी ने अपनी यह विवेचना 'चन्द्रगुप्त मौर्य्य' के नाम से प्रकाशित की थी, जो प्रस्तुत नाटक के प्रारम्भ में सम्मिलित है।

इस उत्कृष्ट नाटक के लिखने की भावना भी 'प्रसाद' जी के मन में उसी समय से बनी हुई थी―इसी के नमूने पर एक छोटा-सा रूपक 'कल्याणी-परिणय' के नाम से उन्होंने लिखा भी, जो अगस्त, १९१२ में 'नागरी-प्रचारिणी-पत्रिका' में प्रकाशित हुआ था, किन्तु वह हिन्दी का अनुवाद-युग था और सन् १७ में डी॰ एल॰ राय का चन्द्रगुप्त अनुवादित होकर हिन्दी में आ गया। अतएव, इस मौलिक कृति की ओर लोग उतने आकृष्ट न हुए, जितने उस अनुवाद के प्रति। फलतः वही अनुवाद हेर-फेर के साथ कई रूपों में हिन्दी-पाठको के सामने लाया गया। फिर भी 'प्रसाद' जी की मौलिक प्रतिभा इस सुन्दर ऐतिहासिक नाटक को अपने ढंग पर लिखने में प्रवृत्त हुई। और बड़ी प्रसन्नता की बात है कि वे अपने प्रयास में सफल ही नहीं, पूर्ण सफल हुए हैं। भाषा, भाव, चरित्र-चित्रण, सभी दृष्टियों से इस नाटक का अधिकांश इतना मार्मिक हुआ है कि 'प्रसाद' जी की लेखनी पर अत्यन्त मुग्ध हो उठना पडता है। कुल