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वास्तव में कुसुम-पूर्ण रहती थी। सुसज्जित तुरंगों पर धनाढय लोग प्राय राजमार्ग में यातायात किया करते थे । गंगा के कूल में बने हुए सुन्दर राजमन्दिर में चन्द्रगुप्त रहता था और केवल तीन कामो के लिए महल के बाहर आता—————

पहिला, प्रजाओ का आवेदन सुनना, जिसके लिए प्रतिदिन एक बार चन्द्रगुप्त को विचारक का आसन ग्रहण करना पड़ता था। उस समय प्राय. तुंरग पर, जो आभूषणो से सजा हुआ रहता था, चन्द्रगुप्त आरोहण करता और प्रतिदिन न्याय से प्रजा का शासन करता था ।

दूसरा, धर्मानुष्ठान बलिप्रदान करने के लिए, जो पर्व और उत्सव के उपलक्षो पर होते थे । मक्तागच्छ-शोभित कारु-कार्य-खचित शिविका पर ( जो कि सम्भवत खुली हुई होती थी ) चन्द्रगुप्त आरोहण करता । इसमें ज्ञात हैं होता कि चन्द्रगुप्त वैदिक धर्मावलम्बी था, क्योकि——————————

“मैसूर में मुद्रित अर्थशास्त्र चाणक्य ही का बनाया है और वह चन्द्रगुप्त के ही लिए बनाया गया है, यह एक प्रकार से सिद्ध हो चुका । उसका उल्लेख प्राय दशकुमारचरित, कादम्बरी तथा कामन्दकीय आदि में मिलता है। उसमें भी लिखा है कि "सर्वशा स्त्राण्यनुक्रम्य प्रयोगमुपलभ्य च । कौटिल्येन नरेन्द्रार्थे शासनाय विधि कृत ।।" ( ७५ पृष्ठ, अर्थशास्त्र ) यह नरेन्द्र शब्द चन्द्रगुप्त के ही लिए प्रयोग किया गया है, उसमें चन्द्रगुप्त के क्षत्रिय होने के तथा वेदधम्मवलम्बी होने के बहुत-से प्रमाण मिलते है ।

( तृतीये स्नान भोजन च सेवेत, स्वाध्याय च कुर्वीत ) ३७ पृ० ( प्रतिष्ठितहनि मध्यमुपासीत ) ६८ पृष्ठ, अर्थशास्त्र ।

‘स्वाध्याय' और 'सध्यां' में ही ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त वेदधर्मावलम्वी था और यहां पर वह मुरा शूद्रावाली कल्पना भी कट जाती है, क्योकि चाणक्य, जिलने लिखा है कि "शूद्रस्य द्विजातिशुश्रूषा"