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तीसरे वर्ग के अधीन पैदल सैनिक रहते थे । चौथा विभाग अश्वारोहियो का था । पाँचवाँ, युद्ध-रथ की देखभाल करता था । छठा, युद्ध के हाथियो का प्रबन्ध करता था ।

इस प्रकार सुरक्षित सेना और अत्युत्तम प्रबन्ध से चन्द्रगुप्त ने २४ वर्ष तक भारत-भूमि का शासन किया । भारतवर्ष के इतिहास में मौर्य्य-युग का एक स्मरणीय समय छोड़कर २९७ ई० पू० मे मानवलीला सवरण करके चन्द्रगुप्त ने अपने सुयोग्य पुत्र के हाथ में राज्य-सिंहासन दिया।

सम्राट् चन्द्रगुप्त दृढ़ शासक, विनीत, व्यवहार-चतुर, मेधावी, उदार, नैतिक, सद्गुण-सम्पन्न तथा भारतभूमि के सपूतो में से एक रत्न था । बौद्ध ग्रंथ, अर्थकथा और वायुपुराण से चन्द्रगुप्त का शासन २४ वर्षों का ज्ञात होता है जो ३२१ ई० पू० से २९७ तक ठीक प्रतीत होता है ।

चन्द्रगुप्त के समय का भारतवर्ष

भारतभूमि अतीव उर्वरा थी, कृत्रिम जल-स्रोत जो कि राजकीय प्रबन्ध से बने थे, खेती के लिए बहुत लाभदायक थे । प्राकृतिक बड़ी-बड़ी नदियाँ अपने तट के भूभाग को सदैव उर्वर बनाती थी। एक वर्ष में दो बार अन्न काटे जाते थे, यदि किसी कारण से एक फसल ठीक न हुई, तो दूसरी अवश्य इतनी होती कि भारतवर्ष को अकाल का सामना नही करना पड़ता था । कृषक लोग बहुत शान्तिप्रिय होते थे । युद्ध आदि के समय में भी कृषक लोग आनन्द से हल चलाते थे । उत्पन्न हुए अन्न का चतुर्थाश राजकोश में जाता था। खेती की उन्नति की ओर राजा का भी विशेष ध्यान रहता था । कृषक लोग आनन्द में अपना जीवन व्यतीत करते थे ।

दलदलो मे अथवा नदियों के तटस्थ भूभाग मे, फल-फूल भी बहुतायत से उगते थे और ये सुस्वादु तथा गुणदायक होते थे।

जानवर भी यहाँ अनेक प्रकार के यूनानियो ने देखे थे। वे कहते है कि चौपाये यहाँ जितने सुन्दर और बलिष्ठ होते थे, वैसे अन्यत्र नही ।


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