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यहाँ के सुन्दर बैलो को सिकन्दर ने यूनान भी भेजा था । जानवरो में जंगली और पालतू सब प्रकार के यहाँ मिलते थे । पक्षी भी भिन्न-भिन्न प्रदेशो मे बहुत प्रकार के थे, जो अपने घोसलो में बैठ कर भारत के सुस्वादु फल खाकर कमनीय कण्ठ से उसकी जय मनाते थे । धातु भी यहाँ प्राय सब उत्पन्न होते थे । सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा और जस्ता इत्यादि यहाँ के खानो में से निकलते और उनसे अनेक प्रकार के उपयोगी अस्त्र-शस्त्र, साज-आभूषण इत्यादि प्रस्तुत होते थे । शिल्प यहाँ का बहुत उन्नत अवस्था में था, क्योंकि उसके व्यवसायी सब प्रकार के कर से मुक्त होते थे। यही नहीं, उनको राजा से सहायता भी मिलती थी जिससे कि वे स्वच्छन्द होकर अपना कार्य करे । क्या विधि-विडम्बना हैं, उसी भारत के शिल्प की, जहाँ के बनाए आडम्बर तथा शिल्प की वस्तुओं को देखकर यूनानियो ने कहा था कि 'भारत की राजधानी पाटलीपुत्र को देखकर फारस की राजधानी कुछ भी नही प्रतीत होती ।'

शिल्पकार राज-कर से मुक्त होने के कारण राजा और प्रजा दोनों के हितकारी यन्त्र बनाता था, जिससे कार्यों में सुगमता होती थी।

प्लिनी कहता है कि 'भारतवर्ष में मनुष्य पाँच वर्ग के है--एक जो लोग राजसभा में कार्य करते है, दूसरे सिपाही, तीसरे व्यापारी, चौथे कृषक और एक पाँचवाँ वर्ग भी है जो कि दार्शनिक कहलाता है।'

पहले वर्ग के लोग सम्भवत ब्राह्मण थे जो कि नीतिज्ञ होकर राजसभा में धर्माधिकार का कार्य करते थे ।

और सिपाही लोग अवश्य क्षत्रिय ही थे । व्यापारियो को वणिक् सम्प्रदाय था । कृषक लोग शूद्र अथवा दास थे , पर वह दासत्व सुसभ्य लोगो की गुलामी नही थी ।

पाँचवाँ वर्ग उन ब्राह्मणो का था, जो संसार से एक प्रकार से अलग होकर ईश्वराराधना में अपना दिन बिताते तथा सदुपदेश देकर संसारी लोगो को आनन्दित करते थे । वे स्वयं यज्ञ करते थे और दूसरे को यज्ञ कराते थे, सम्भवत वे ही मनुष्यो का भविष्य कहते थे और