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प्रथम अंक
 


चाणक्य—तुम मालव हो और यह मागध; यही तुम्हारे मान का अवसान है न? परन्तु आत्म-सम्मान इतने ही से सन्तुष्ट नहीं होगा। मालव और मागध को भूलकर जब तुम आर्य्यावर्त्त का नाम लोगे, तभी वह मिलेगा। क्या तुम नहीं देखते हो कि आगामी दिवसो में, आर्य्यावर्त्त के सब स्वतंत्र राष्ट्र एक के अनन्तर दूसरे विदेशी विजेता से पददलित होगे? आज जिस व्यंग्य को लेकर इतनी घटना हो गई है, वह बात भावी गांधार-नरेश आम्भीक के हृदय में, शल्य के समान चुभ गई है। पञ्चनद-नरेश पर्वतेश्वर के विरोध के कारण, यह क्षुद्र-हृदय आम्भीक यवनों का स्वागत करेगा और आर्य्यावर्त्त का सर्वनाश होगा।

चन्द्र॰—गुरुदेव, विश्वास रखिए; यह सब कुछ नहीं होने पावेगा। यह चन्द्रगुप्त आपके चरणो की शपथपूर्वक प्रतिज्ञा करता है, कि यवन यहाँ कुछ न कर सकेंगे।

चाणक्य—साधु! तुम्हारी प्रतिज्ञा अचल हो। परन्तु इसके लिए पहले तुम मगध जाकर साधन-सम्पन्न बनो। यहाँ समय बिताने का प्रयोजन नहीं। मैं भी पञ्चनद-नरेश से मिलता हुआ मगध आऊँगा। और सिंहरण, तुम भी सावधान।

सिंह॰—आर्य्य, आपका आशीर्वाद ही मेरा रक्षक है।

[चन्द्रगुप्त और चाणक्य का प्रस्थान]

सिंह॰—एक अग्निमय गन्धक का स्रोत आर्य्यावर्त्त के लौह-अस्त्रागार में घुस कर विस्फोट करेगा। चञ्चला रणलक्ष्मी इन्द्र-धनुष-सी विजयमाला हाथ में लिए उस सुन्दर नील-लोहित प्रलय-जलद में विचरण करेगी और वीर-हृदय मयूर-से नाचेंगे] तब आओ देवि! स्वागत!!

[अलका का प्रवेश]

अलका—मालव-वीर, अभी तुमने तक्षशिला का परित्याग नहीं किया?

सिंह॰—क्यों देवि? क्या मैं यहाँ रहने के उपयुक्त नहीं हूँ?

अलका—नहीं, मैं तुम्हारी सुख-शान्ति के लिए चिन्तित हूँ। भाई ने

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