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चन्द्रगुप्त
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तुम्हारा अपमान किया है, पर वह अकारण न था; जिसका जो मार्ग है उसपर वह चलेगा। तुमने अनधिकार चेष्टा की थी! देखती हूँ कि प्राय मनुप्य, दूसरो को अपने मार्ग पर चलाने के लिए रुक जाता हैं, और अपना चलना वन्द कर देता है।

सिंह०―परन्तु भद्रे, जीवन-काल में भिन्न-भिन्न मार्गों की परीक्षा करते हुए, जो ठहरता हुआ चलता है, वह दूसरों को लाभ ही पहुँचाता है। यह कष्टदायक तो है; परन्तु निष्फल नहीं।

अलका―किन्तु मनुष्य को अपने जीवन और सुख का भी ध्यान रखना चाहिए।

सिंह०—मानव कब दानव से भी दुर्दान्त, पशु से भी बर्बर, और पत्थर से भी कठोर, करुणा के लिए निरवकाश हृदयवाला हो जाएगा, नही जाना जा सकता। अतीत सुखो के लिए सोच क्यो, अनागत भविष्य के लिए भय क्यो और वर्तमान को मैं अपने अनुकूल बना ही लूँँगा , फिर चिन्ना किस वान की?

अलका―मालव, तुम्हारे देश के लिए तुम्हारा जीवन अमूल्य है, और वही यहाँ आपत्ति में है।

सिंह०―राजकुमारी, इस अनुकम्पा के लिए कृतज्ञ हुआ। परन्तु मेरा देश मालव ही नहीं, गाधार भी है। यही क्या, ससुग्र आर्य्यावर्त्त है, इसलिए में...........

अलका―(आश्चर्य्य से)―क्या कहते हो?

सिंंह०―गाधार अर्य्यवर्त्त से भिन्न नहीं है, इसीलिए उनके पतन को मै अपना अपमान समझता हूँ।

अलका―(नि.श्वास लेकर)―इनका मै अनुभव कर रही हूँ। परन्तु जिस देश में ऐसे वीर युवक हो, उसका पतन असम्भव है। मालववीर, तुम्हारे मनोवल में स्वतंत्रता है और तुम्हारी दृढ भुजाओ में आर्य्यावर्त्त के रक्षण की शक्ति है , तुम्हें सुरक्षित रहना ही चाहिए। मैं भी आर्य्यावर्त्त की बालिका हूँ― तुमसे अनुरोध करती हूँ कि तुम शीघ्र