पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/६३

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मगध-सम्राट् का विलास-कानन
विलासी युवक और युवतियों का विहार

नन्द—(प्रवेश करके)—आज वसन्त-उत्सव है क्या?

एक युवक—जय हो देव! आप की आज्ञा से कुसुमपुर के नागरिकों ने आयोजन किया हैं।

नन्द—परन्तु मदिरा का तो तुम्हारे समाज में अभाव है, फिर आमोद कैसा?—(एक युवती से)—देखो-देखो—तुम सुन्दरी हो, परन्तु तुम्हारे यौवन का विभ्रम अभी संकोच की अर्गला से जकड़ा हुआ है। तुम्हारी आँखों में काम का सुकुमार संकेत नहीं, अनुराग की लाली नहीं। फिर कैसा प्रमोद!

एक युवती—हम लोग तो निमंत्रित नागरिक हैं देव! इसका दायित्व तो निमंत्रण देने वाले पर हैं।

नन्द—वाह, यह अच्छा उलाहना रहा!—(अनुचर से)—मूर्ख! अभी और कुछ सुनावेगा? तू नहीं जानता कि मैं ब्रह्मास्त्र से अधिक इन सुन्दरियों के कुटिल कटाक्षो से डरता हूँ? ले आ—शीघ्र ले आ—नागरिको पर तो मैं राज्य करता हूँ, परन्तु मेरी मगध की नागरिकाओं का शासन मेरे ऊपर हैं। श्रीमती, सबसे कह दो—नागरिक नन्द, कुसुमपुर के कमनीय कुसुमों में अपराध के लिए क्षमा माँगता हैं और आज के दिन वह तुम लोगों का कृतज्ञ सहचर-मात्र हैं।

[अनुचर लोग प्रत्येक कुञ्ज में मदिराकलश और चंपक पहुँचाते हैं। राक्षस और सुवासिनी का प्रवेश, पीछे-पीछे कुछ नागरिक।]

राक्षस—सुवासिनी! एक पात्र और; चलो इस कुञ्ज में।

सुवा॰—नहीं, अब मैं न सँभल सकूँगी।

राक्षस—फिर इन लोगों से कैसे पीछा छूटेगा?

सुवा॰—मेरी एक इच्छा है।