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प्रथम अंक
 


एक नागरिक—क्या इच्छा है सुवासिनी, हम लोग अनुचर हैं। केवल एक सुन्दर आलाप की, एक कोमल मूर्च्छना की लालसा हैं।

सुवा॰—अच्छा तो अभिनय के साथ।

सब--(उल्लास से)—सुन्दरियों की रानी सुवासिनी की जय!

सुवा॰—परन्तु राक्षस को कच का अभिनय करना पडे़गा।

एक॰—और तुम देवयानी, क्यों? यही न? राक्षस सचमुच राक्षस होगा, यदि इसमें आनाकानी करे तो...चलो राक्षस!

दूसरा—नहीं मूर्ख! आर्य्य राक्षस कह, इतने बड़े कला-कुशल विद्वान् को किस प्रकार सम्बोधित करना चाहिए, तू इतना भी नहीं जानता! आर्य्य राक्षस! इन नागरिकों की प्रार्थना से इस कष्ट को स्वीकार कीजिए।

[राक्षस उपयुक्त स्थान ग्रहण करता है। कुछ मूक अभिनय, फिर उसके बाद सुवासिनी का भाव-सहित गान—]

तुम कनक किरण के अन्तराल में
लुक-छिप कर चलते हो क्यो?
नत मस्तक गर्व वहन करते
यौवन के घन, रस कन दरते।
है लाज भरे सौन्दर्य।
बता दो मौन बने रहते हो क्यों?
अधरो के मधुर कगारो में
कल-कल ध्वनि की गुञ्जारो में
मधुसरिता-सी यह हँसी
तरल अपनी पीते रहते हो क्यो?
वेला विभ्रम की बीत चली
रजनीगंधा की कली खिली--
अब सान्ध्य मलय-आकुलित।
दुकूल कलित हो, यो छिपते हो क्यो?

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