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प्रथम अंक
 

अश्रुमय सुन्दर विरह निशीथ
भरे तारे न ढुलकते ओह!
न उफना दे आँसू है भरे
इन्ही आँखो में उनकी चाह
काकली-सी बनने की तुम्हें
लगन लग जाय न हे भगवान्
पपीहा का पी सुनता कभी!
अरे कोकिल की देख देशा न।
हृदय है पास, साँस की राह
चले आना-जाना चुपचाप
अरे छाया बन, छ मत उसे
भरा है तुझमे भीषण ताप
हिला कर धड़कन से अविनीत
जगा मत, सोया है सुकुमार
देखता हैं स्मृतियो का स्वप्न,
हृदय पर मत कर अत्याचार।


कई नागरिक—स्वर्गीय अमात्य वक्रनास के कुल की जय!

नन्द—क्या कहा, वक्रनास का कुल?

नागरिक—हाँ देव, आर्य्य राक्षस उन्हीं के भ्रातुष्पुत्र हैं।

नन्द—राक्षस! आज से तुम मेरे अमात्यवर्ग में नियुक्त हुए। तुम तो कुसुमपुर के एक रत्न हो!

[उसे माला पहनाता है और शस्त्र देता है]

सब—सम्राट् की जय हो! अमात्य राक्षस की जय हो!

नन्द—और सुवासिनी, तुम मेरी अभिनय-शाला की रानी!

[सब हर्ष प्रकट करते हुए जाते हैं]

च॰ ५

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