पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
 


पाटलिपुत्र में एक भग्नकुटीर

चाणक्य—(प्रवेश करके)—झोपड़ी ही तो थीं, पिताजी यहीं मुझे गोद में बिठा कर राज-मन्दिर का सुख अनुभव करते थें। ब्राह्मण थें, ऋत और अमृत जीविका से सन्तुष्ट थें, पर वे भी न रहें! कहाँ गये? कोई नहीं जानता। मुझे भी कोई नहीं पहचानता। यही तो मगध का राष्ट्र है। प्रजा की खोज है किसे? वृद्ध दरिद्र ब्राह्मण कहीं ठोकरें खाता होगा या कहीं मर गया होगा!

[एक प्रतिवेशी का प्रवेश]

प्रतिवेशी—(देखकर)—कौन हो जी तुम? इधर के घरो को बड़ी देर से क्या घूर रहे हो?

चाणक्य—ये घर हैं, जिन्हें पशु की खोह कहने में भी संकोच होता है? यहाँ कोई स्वर्ण-रत्नो का ढेर नहीं, जो लूटने का भय हो।

प्रतिवेशी—युवक, क्या तुम किसी को खोज रहे हो?

चाणक्य—हाँ, खोज रहा हूँ, यहीं झोपड़ी में रहनेवाले वृद्ध ब्राह्मण चणक को। आजकल वे कहाँ हैं, बता सकते हो?

प्रतिवेशी--(सोचकर)—ओहो, कई बरस हुए, वह तो राजा की आज्ञा से निर्वासित कर दिया गया है। (हँसकर)—वह ब्राह्मण भी बड़ा हठी था। उसने राजा नन्द के विरुद्ध प्रचार करना आरम्भ किया था। सो भी क्यों, एक मन्त्री शकटार के लिए। उसने सुना कि राजा ने शकटार का बन्दीगृह में वध करवा डाला। ब्राह्मण ने नगर में इस अन्याय के विरुद्ध आतंक फैलाया। सबसे कहने लगा कि—"यह महापद्म का जारज पुत्र नन्द—महापद्म का हत्याकारी नन्द—मगध में राक्षसी राज्य कर रहा है। नागरिको, सावधान!

चाणक्य—अच्छा, तब क्या हुआ?

प्रतिवेशी—वह पकड़ा गया। सो भी कब, जब एक दिन अहेर की