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प्रथम अंक
 

यात्रा करते हुए नन्द के लिए राजपथ में मुक्तकंठ से नागरिकों ने अनादर के वाक्य कहें। नन्द ने ब्राह्मण को समझाया। यह भी कहा कि तेरा मित्र शकटार बन्दी है, मारा नहीं गया। पर वह बड़ा हठी था; उसने न माना, न ही माना। नन्द ने भी चिढ़ कर उसका ब्राह्मस्व बौद्ध-विहार में दे दिया और उसे मगध से निर्वासित कर दिया। यही तो उसकी झोपड़ी है।

[जाता है]

चाणक्य—(उसे बुलाकर)—अच्छा एक बात और बताओ।

प्रति॰—क्या पूछते हो जी, तुम इतना जान लो कि नन्द को ब्राह्मणों से घोर शत्रुता है और वह बौद्धधर्मानुयायी हो गया है।

चाणक्य—होने दो; परन्तु यह तो बताओ—शकटार का कुटुम्ब कहाँ है?

प्रति॰—कैसे मनुष्य हो? अरे राज-कोपानल में वे सब जल मरे। इतनी-सी बात के लिए मुझे लौटाया था—छि!

[जाना चाहता है]

चाणक्य—हे भगवान्! एक बात दया करके और बता दो—शकटार की कन्या सुवासिनी कहाँ है?

प्रति॰—(जोर से हंसता है)—युवक! वह बौद्ध-विहार में चली गई थी, परन्तु वहाँ भी न रह सकी। पहले तो अभिनय करती फिरती थी, आजकल कहाँ है, नहीं जानता।

[जाता है]

चाणक्य—पिता का पता नहीं; झोपड़ी भी न रह गई। सुवासिनी अभिनेत्री हो गई—सम्भवतः पेट की ज्वाला से। एक साथ दो-दो कुटुम्बों का सर्वनाश और कुसुमपुर फूलो की सेज में ऊँघ रहा है। क्या इसीलिए राष्ट्र की शीतल छाया का संगठन मनुष्य ने किया था! मगध! मगध! सावधान! इतना अत्याचार! सहना असम्भव है। तुझे उलट दूँगा! नया बनाऊँगा, नहीं तो नाश ही करूँगा!—(ठहरकर)—एक बार

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