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कुसुमपुर के सरस्वती-मन्दिर के उपवन का पथ

राक्षस—सुवासिनी! हठ न करो।

सुवा॰—नहीं, उस ब्राह्मण को दण्ड दिये बिना सुवासिनी जी नहीं सकती अमात्य, तुमको करना होगा। मैं बौद्धस्तूप की पूजा करके आ रही थी, उसने व्यंग किया और वह बड़ा कठोर था, राक्षस! उसने कहा—'वेश्याओं के लिए भी एक धर्म की आवश्यकता थीं, चलो अच्छा ही हुआ। ऐसे धर्म के अनुगत पतितों की भी कमी नहीं।'

राक्षस—यह उसका अन्याय था।

सुवा॰—परन्तु अन्याय का प्रतिकार भी है। नहीं तो मैं समझूँगी कि तुम भी वैसे ही एक कठोर ब्राह्मण हो।

राक्षस—मैं वैसा हूँ कि नहीं, यह पीछे मालूम होगा। परन्तु सुवासिनी, मैं स्वयं हृदय से बौद्धमत का समर्थक हूँ; केवल उसकी दार्शनिक सीमा तक—इतना ही कि संसार दुखमय है।

सुवा॰—इसके बाद?

राक्षस—मैं इस क्षणिक जीवन की घड़ियो को सुखी बनाने का पक्षपाती हूँ। और तुम जानती हो कि मैंने ब्याह नहीं किया; परन्तु भिक्षु भी न बन सका।

सुवा॰—तब आज से मेरे कारण तुमको राजचक्र में बौद्धमत का समर्थन करना होगा।

राक्षस—मैं प्रस्तुत हूँ।

सुवा॰—फिर लो मैं तुम्हारी हूँ। मुझे विश्वास है कि दुराचारी सदाचार के द्वारा शुद्ध हो सकता है, और बौद्धमत इसका समर्थन करता है, सबको शरण देता है। हम दोनो उपासक होकर सुखी बनेंगे।

राक्षस—इतना बड़ा सुख-स्वप्न का जाल आँखो में न फैलाओ।

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