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चन्द्रगुप्त
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सुवा॰—नहीं प्रिय! मैं तुम्हारी अनुचरी हूँ। मैं नन्द की विलास-लीला का क्षुद्र उपकरण बनकर नहीं रहना चाहती।

[जाती है]

राक्षस—एक परदा उठ रहा है, या गिर रहा है, समझ में नही आता—(आंख मीचकर)—सुवासिनी! कुसुमपुर का स्वर्गीय कुसुम मैं हस्तगत कर लूँ? नहीं, राजकोप होगा! परन्तु जीवन वृथा है। मेरी विद्या, मेरा परिष्कृत विचार सब व्यर्थ है। सुवासिनी एक लालसा है, एक प्यास है। वह अमृत है, उसे पाने के लिए सौ बार मरूँगा।

[नेपथ्य से—हटो, मार्ग छोड़ दो]

राक्षस—कोई राजकुल की सवारी है? तो चलूँ।

[जाता है]

[रक्षियों के साथ शिविका पर राजकुमारी कल्याणी का प्रवेश]

कल्याणी(शिविका से उतरती हुई लीला से)—शिविका उद्यान के बाहर ले जाने के लिए कहो और रक्षी लोग भी वहीं ठहरें।

[शिविका ले कर रक्षक जाते हैं]

कल्याणी—(देखकर)—आज सरस्वती-मन्दिर में कोई समाज हैं क्या? जा तो नीला देख आ।

[नीला जाती है]

लीला—राजकुमारी, चलियें इस श्वेत शिला पर बैठियें। यहाँ अशोक की छाया बड़ी मनोहर है। अभी तीसरे पहर का सूर्य कोमल होने पर भी स्पृहणीय नहीं।

कल्याणी—चल।

[दोनो जाकर बैठती हैं, नीला आती है]

नीला—राजकुमारी, आज तक्षशिला से लौटे हुए स्नातक लोग सरस्वती-दर्शन के लिए आये हैं।

कल्याणी—क्या सब लौट आये हैं?

नीला—यह तो न जान सकी।