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प्रथम अंक
 


कल्याणी—अच्छा, तू भी बैठ। देख, कैसी सुन्दर माधवी लता फैल रही है। महाराज के उद्यान में भी लताएँ ऐसी हरी-भरी नहीं, जैसे राज-आतंक से वे भी डरी हुई हो। सच नीला, मैं देखती हूँ कि महाराज से कोई स्नेह नहीं करता, डरते भले ही हो।

नीला—सखी, मुझ पर उनका कन्या-सा ही स्नेह हैं, परन्तु मुझे डर लगता है।

कल्याणी—मुझे इसका बड़ा दुःख है। देखती हूँ कि समस्त प्रजा उनसे त्रस्त और भयभीत रहती हैं, प्रचण्ड शासन करने के कारण उनका बड़ा दुर्नाम हैं।

नीला—परन्तु इसका उपाय क्या है? देख लीला, वे दो कौन इधर आ रहे हैं। चल, हम लोग छिप जायँ।

[सब कुंज में चली जाती है। दो ब्रह्मचारियों का प्रवेश]

एक ब्रह्म॰—धर्म्मपालित, मगध को उन्माद हो गया है। वह जनसाधारण के अधिकार अत्याचारियों के हाथ में देकर विलासिता का स्वप्न देख रहा है। तुम तो गए नहीं, मैं अभी उत्तरापथ से आ रहा हूँ। गणतन्त्रो में सब प्रजा वन्यवीरुध के समान स्वच्छन्द फल-फूल रही हैं। इधर उन्मत्त मगध, साम्राज्य की कल्पना में निमग्न है।

दूसरा—स्नातक, तुम ठीक कह रहे हो। महापद्म का जारज-पुत्र नन्द केवल शस्त्र-बल और कूटनीति के द्वारा सदाचारो के शिर पर ताण्डव-नृत्य कर रहा है। वह सिद्धान्त-विहीन नृशंस, कभी बौद्धो का पक्षपाती, कभी वैदिको का अनुयायी बनकर दोनों में भेदनीति चलाकर बल-सञ्चय करता रहता है। मूर्ख जनता धर्म की ओट में नचाई जा रही हैं। परन्तु तुम देश-विदेश देखकर आएँ हो, आज मेरे घर पर तुम्हारा निमन्त्रण हैं, वहाँ सब को तुम्हारी यात्रा का विवरण सुनने का अवसर मिलेगा।

पहिला—चलो। (दोनों जाते हैं, कल्याणी बाहर आती है।)

कल्याणी—सुन कर हृदय की गति रुकने लगती है। इतना कदर्थित

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