पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

मगध में नन्द की राजसभा

राक्षस और सभासदो के साथ नन्द

नन्द―हॉ, तब?

राक्षस―दूत लौट आए और उन्होने कहा कि पचनद-नरेश को यह सम्बन्ध स्वीकार नही।

नन्द―क्यो?

राक्षस―प्राच्य देश के बौद्ध और शूद्र राजा की कन्या से वे परिचय नही कर सकते।

नन्द―इतना गर्व!

राक्षस―यह उसका गर्व नही, यह धर्म का दम्भ है, व्यग है। मैं इसका फल दूँँगा। मगध-जैसे शक्तिशाली राष्ट्र का अपमान करके कोई यो ही नही बच जायगा। ब्राह्मणो का यह........

[ प्रतिहारी का प्रवेश ]

प्रतिहार―जय हो देव, मगध से शिक्षा के लिये गये हुए तक्षशिला के स्नातक आये है।

नन्द―लिवा लाओ।

[दौवारिक का प्रस्थान ; चन्द्रगुप्त के साथ कई स्नातकों का प्रवेश]
 

स्नातक―राजाधिराज की जय हो!

नन्द―स्वागत। अमात्य वररुचि अभी नहीं आये, देखो तो?

[प्रतिहार का प्रस्थान और वररुचि के साथ प्रवेश]

वर०―जय हो देव, मैं स्वयं आ रहा था।

नन्द―तक्षशिला से लौटे हुए स्नातको की परीक्षा लीजिये।

वर०―राजाधिराज, जिस गुरुकुल मे मैं स्वयं परीक्षा देकर स्नातक हुआ हूँ, उसके प्रमाण की भी पुन. परीक्षा, अपने गुरुजनो के प्रति अपमान करना है।


[38]