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चन्द्रगुप्त
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राक्षस—चुप रहो। तुम चणक के पुत्र हो न, तुम्हारें पिता भी ऐसे ही हठी थें।

नन्द॰—क्या उसी विद्रोही ब्राह्मण की सन्तान? निकालो इसे अभी यहाँ से!

[प्रतिहारी आगे बढ़ता है; चंद्रगुप्त सामने आकर रोकता है]

चन्द्र०—सम्राट्, मैं प्रार्थना करता हूँ कि गुरुदेव का अपमान न किया जायं। मैं भी उत्तरापथ से आ रहा हूँ। आर्य्य चाणक्य ने जो कुछ कहा हैं, वह साम्राज्य के हित की बात है। उसपर विचार किया जायं।

नन्द॰—कौन? सेनापति मौर्य्य का कुमार चन्द्रगुप्त!

चन्द्र॰—हाँ देव, मैं युद्ध-नीति सीखने के लिए ही तक्षशिला भेजा गया था। मैंने अपनी आँखों गान्धार का उपप्लव देखा है, मुझे गुरुदेव के मत में पूर्ण विश्वास है। यह आगन्तुक आपत्ति पंचनद-प्रदेश तक ही न रह जायगी।

नन्द—अबोध युवक, तो क्या इसीलिए अपमानित होने पर भी मैं पर्वतेश्वर की सहायता करूं? असम्भव है। तुम राजाज्ञाओं में बाधा न देकर शिष्टता सीखो। प्रतिहारी, निकालो इस ब्राह्मण को! यह बड़ा ही कुचक्री मालूम पड़ता है।

चन्द्र॰—राजाधिराज, ऐसा करके आप एक भारी अन्याय करेंगे। और मगध के शुभचिन्तकों को शत्रु बनाएँगे।

राजकुमारी—पिताजी, चन्द्रगुप्त पर ही दया कीजिए! एक बात उसकी भी मान लीजिए।

नन्द—चुप रहो, ऐसे उद्दण्ड को मैं कभी नहीं क्षमा करता और सुनो चन्द्रगुप्त, तुम भी यदि इच्छा हो तो इसी ब्राह्मण के साथ जा सकते हो, अब कभी मगध में मुँह न दिखाना।

[प्रतिहारी दोनों को निकालना चाहता है, चाणक्य रुक कर कहता है]

सावधान नन्द! तुम्हारी धर्मान्धता से प्रेरित राजनीति आँधी की तरह चलेगी, उसमे नन्द-वंश समूल उखड़ेगा। नियति-सुन्दरी के भावों