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चन्द्रगुप्त
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सिंहरण—(उसे रखते हुए)—ठीक है, मैं रुका भी इसीलिए था।—(यवन से)—हाँ जी, कहो, अब तुम्हारी क्या इच्छा है?

यवन—(खड्ग निकालकर)—मानचित्र मुझे दे दो या प्राण देना होगा।

सिंहरण—उसके अधिकारी का निर्वाचन खड्ग करेगा। तो फिर सावधान हो जाओ। (तलवार खींचता है)

[यवन के साथ युद्ध—सिंहरण घायल होता है; परन्तु यवन को उसके भीषण प्रत्याक्रमण से भय होता है, वह भाग निकलता है]

अलका—वीर! यद्यपि तुम्हे विश्राम की आवश्यकता है, परन्तु अवस्था बड़ी भयानक है। वह जाकर कुछ उत्पात मचावेगा। पिताजी पूर्णरूप से यवनो के हाथ में आत्म-समर्पण कर चुके हैं।

सिंहरण—(हंसता और रक्त पोछता हुआ)—मेरा काम हो गया राजकुमारी! मेरी नौका प्रस्तुत है, मैं जाता हूँ। परन्तु बड़ा अनर्थ हुआ चाहता है। क्या गांधार-नरेश किसी तरह न मानेगे?

अलका—कदापि नही। पर्वतेश्वर से उनका बद्धमूल बैर है।

सिंहरण—अच्छा देखा जायगा, जो कुछ होगा। देखिए, मेरी नौका आ रहीं हैं, अब विदा माँगता हूँ।

[सिन्धु में नौका आती हैं, घायल सिंहरण उसपर बैठता है, सिंहरण और अलका दोनों एक-दूसरे को देखते हैं]

अलका—मालविका भी तुम्हारे साथ जायगी--तुम जाने योग्य इस समय नहीं हो।

सिंहरण—जैसी आज्ञा। बहुत शीघ्र फिर दर्शन करूँगा। जन्मभूमि के लिए ही यह जीवन है, फिर जब आप-सी सुकुमारियाँ इसकी सेवा में कटिबद्ध हैं, तब मैं पीछे कब रहूँगा। अच्छा, नमस्कार।

[मालविका नाव में बैठती है। अलका सतृषण नयनों से देखती हुई नमस्कार करती है। नाव चली जाती हैं]‌