पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/८४

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मगध का बन्दीगृह

चाणक्य—समीर की गति भी अवरुद्ध है, शरीर का फिर क्या कहना? परन्तु मन में इतने संकल्प और विकल्प? एक बार निकलने पाता तो दिखा देता कि इन दुर्बल हाथों में साम्राज्य उलटने की शक्ति हैं और ब्राह्मण के कोमल हृदय में कर्तव्य के लिए प्रलय की आँधी चला देने की भी कठोरता है। जकड़ी हुई लौह शृंखलें! एक बार तु फूलों की माला बन जा और मैं मदोन्मत्त विलासी के समान तेरी सुन्दरता को भंग कर दूँ। क्या रोने लगूँ? इस निष्ठुर यंत्रणा की कठोरता से बिलबिलाकर दया की भिक्षा माँगूँ? माँगूँ कि मुझे भोजन के लिए एक मुट्ठी चने जो देते हो, न दो, एक बार स्वतंत्र कर दो। नहीं, चाणक्य! ऐसा न करना। नहीं तो तू भी साधारण-सी ठोकर खाकर चूर-चूर हो जाने वाली एक बामी हो जायगा। तब मैं आज से प्रण करता हूँ कि दया किसी से न माँगूँगा और अधिकार तथा अवसर मिलने पर किसी पर न करूँगा। (ऊपर देखकर)—क्या कभी नहीं? हाँ, हाँ, कभी किसी पर नही। मैं प्रलय के समान अवाधगति और कर्त्तव्य में इन्द्र के वज्र के समान भयानक बनूँगा।

[किवाड़ खुलता है, वररुचि और राक्षस का प्रवेश]

राक्षस—स्नातक! अच्छे तो हो?

चाणक्य—बुरे कब थे बौद्ध अमात्य!

राक्षस—आज हम लोग एक काम से आए हैं। आशा हैं कि तुम अपनी हठवादिता से मेरा और अपना दोनो का अपकार न करोगे।

वररुचि—हाँ चाणक्य! अमात्य का कहना मान लो।

चाणक्य—भिक्षोपजीवी ब्राह्मण! क्या बौद्धों का संग करते-करते तुम्हें अपनी गरिमा का सम्पूर्ण विस्मरण हो गया? चाटुकारों के सामने

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