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चन्द्रगुप्त
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मेरे ही सामने। उसके लिए एक यवन दण्ड की व्यवस्था करें, यही तो तुम्हारे उद्योगो का फल है!

अलका—महाराज! मुझे दण्ड दीजिये, कारागार में भेजिये, नहीं तो मैं मुक्त होने पर भी यही करूँगी। कुलपुत्रों के रक्त से आर्यावर्त्त की भूमि सिचेगी! दानवी बनकर जननी जन्म-भूमि अपनी सन्तान को खायगी। महाराज! आर्यावर्त्त के सब बच्चे आम्भीक-जैसे नहीं होंगे। वे इसकी मान-प्रतिष्ठा और रक्षा के लिए तिल-तिल कट जायेंगे। स्मरण रहे, यवनों की विजयवाहिनी के आक्रमण को प्रत्यावर्त्तन बनाने वाले यही भारत-सन्तान होंगे। तब बचे हुए क्षतांग वीर, गांधार को—भारत के द्वार-रक्षक को—विश्वासघाती के नाम से पुकारेंगे और उसमें नाम लिया जायगा मेरे पिता का! आह! उसे सुनने के लिए मुझे जीवित न छोड़िये, दण्ड दीजिये—मृत्युदण्ड!

आम्भीक—इसे उन सबो ने खूब बहकाया हैं। राजनीति के खेल यह क्या जाने? पिताजी, पर्वतेश्वर—उद्दंड पर्वतेश्वर ने जो मेरा अपमान किया है, उसका प्रतिशोध।

राजा—हाँ बेटी! उसने स्पष्ट कह दिया है कि, कायर आम्भीक से मैं अपने लोक-विश्रुत कुल की कुमारी का व्याह न करूँगा। और भी, उसने वितस्ता के इस पार अपनी एक चौकी बना दी है, जो प्राचीन सन्धियों के विरुद्ध है।

अलका—तब महाराज! उस प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए जो लड़कर मर नहीं गया, वह कायर नहीं तो और क्या है?

आम्भीक—चुप रहो अलका!

राजा—तुम दोनो ही ठीक बाते कह रहे हो, फिर मैं क्या करूं?

अलका—तो महाराज! मुझे दण्ड दीजिए, क्योंकि राज्य का उत्तराधिकारी अम्भीक ही उसके शुभाशुभ की कसौटी है, मैं भ्रम में हूँ।

राजा—मैं यह कैसे कहूँ?