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कानन-पथ में अलका

अलका—चली जा रही हूँ। अनन्त पथ है, कहीं पान्थशाला नहीं और न पहुँचने का निर्दिष्ट स्थान है। शैल पर से गिरा दी गई स्रोत-स्विनी के सदृश अविराम भ्रमण, ठोकरे और तिरस्कार! कानन में कहाँ चली जा रही हूँ?—(सामने देखकर)—अरे! यवन!!

(शिकारी के वेश में सिल्यूकस का प्रवेश)

सिल्यूकस—तुम कहाँ, सुन्दरी राजकुमारी!

अलका—मेरा देश है, मेरे पहाड़ हैं, मेरी नदियाँ हैं और मेरे जंगल हैं। इस भूमि के एक-एक परमाणु मेरे हैं और मेरे शरीर के एक-एक क्षुद्र अंश उन्ही परमाणुओं के बने हैं! फिर मैं और कहाँ जाऊँगी यवन?

सिल्यूकस—यहाँ तो तुम अकेली हो सुन्दरी!

अलका—सो तो ठीक है।—(दूसरी ओर देखकर सहसा)—परंतु देखो वह सिंह आ रहा है।

(सिल्यूकस उधर देखता है, अलका दूसरी ओर निकल जाती है)

सिल्यूकस—निकल गई।—(दूसरी ओर जाता है)

(चाणक्य और चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चाणक्य—वत्स, तुम बहुत थक गए होंगे।

चन्द्रगुप्त—आर्य्य! नसों ने अपने बंधन ढीले कर दिये हैं, शरीर अवसन्न हो रहा है, प्यास भी लगी है।

चाणक्य—और कुछ दूर न चल सकोगे?

चन्द्रगुप्त—जैसी आज्ञा हो।

चाणक्य—पास ही सिन्धु लहराता होगा, उसके तट पर ही विश्राम करना ठीक होगा।