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प्रथम अंक
 

[चन्द्रगुप्त चलने के लिए पैर बढ़ाता है फिर बैठ जाता है]

चाणक्य—(उसे पकड़कर)—सावधान, चन्द्रगुप्त!

चन्द्रगुप्त—आर्य्य! प्यास से कंठ सूख रहा है, चक्कर आ रहा है।

चाणक्य—तुम विश्राम करो, मैं अभी जल लेकर आता हूँ।

[प्रस्थान]

[चन्द्रगुप्त पसीने से तर लेट जाता है। एक व्याघ्र समीप आता दिखाई पड़ता है। सिल्यूकस प्रवेश करके धनुष सँभालकर तीर चलाता है! व्याघ्र मरता है। सिल्यूकस की चन्द्रगुप्त को चैतन्य करने की चेष्टा। चाणक्य का जल लिए आना]

सिल्यूकस—थोड़ा जल, इस सत्त्वपूर्ण पथिक की रक्षा करने के लिए थोड़ा जल चाहिए।

चाणक्य—(जल के छींटे देकर)—आप कौन हैं?

[चन्द्रगुप्त स्वस्थ होता है]

सिल्यूकस—यवन सेनापति! तुम कौन हो?

चाणक्य—एक ब्राह्मण।

सिल्यूकस—यह तो कोई बड़ा श्रीमान पुरुष है। ब्राह्मण! तुम इसके साथी हो?

चाणक्य—हाँ, मैं इस राजकुमार का गुरु हूँ, शिक्षक हूँ।

सिल्यूकस—कहाँ निवास है?

चाणक्य—यह चन्द्रगुप्त मगध का एक निर्वासित राजकुमार है।

सिल्यूकस—(कुछ विचारता है)—अच्छा, अभी तो मेरे शिविर में चलो, विश्राम करके फिर कहीं जाना।

चन्द्रगुप्त—यह सिंह कैसे मरा? ओह, प्यास से मैं हतचेत हो गया था—आपने मेरे प्राणों की रक्षा की, मै कृतज्ञ हूँ। आज्ञा दीजिए, हम लोग फिर उपस्थित होंगे, निश्चय जानिए।

सिल्यूकस—जब तुम अचेत पडे़ थे तब यह तुम्हारे पास बैठा था। मैंने विपद समझकर इसे मार डाला। मैं यवन सेनापति हूँ।

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