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सिन्धु-तट पर दाण्ड्यायन का आश्रम

दाण्ड्यायन—पवन एक क्षण विश्राम नहीं लेता, सिन्धु की जलधारा बही जा रही है, बादलों के नीचे पक्षियों का झुण्ड उड़ा जा रहा हैं, प्रत्येक परमाणु न जाने किस आकर्षण में खिंचे चले जा रहे हैं। जैसे काल अनेक रूप में चल रहा है।—यही तो...

[एनिसाक्रीटीज का प्रवेश]

एनि॰—महात्मन्!

दाण्ड्यायन—चुप रहो, सब चले जा रहे हैं, तुम भी चले जाओ। अवकाश नहीं, अवसर नहीं।

एनि॰—आप से कुछ....

दाडण्यायन—मुझसे कुछ मत कहो। कहो तो अपने आप ही कहो, जिसे आवश्यकता होगी सुन लेगा। देखते हो, कोई किसी की सुनता है? मैं कहता हूँ—सिन्धु के एक विन्दु! धारा में न बहकर मेरी एक बात सुनने के लिए ठहर जा।―वह सुनता है? ठहरता है? कदापि नहीं।

एनि॰—परन्तु देवपुत्र ने ......

दाण्ड्यायन—देवपुत्र?

एनि॰—देवपुत्र जगद्विजेता सिकन्दर ने आपका स्मरण किया हैं। आपका यश सुनकर आपसे कुछ उपदेश ग्रहण करने की उनकी बलवती इच्छा हैं।

दाण्ड्यायन—(हँसकर)—भूमा का सुख और उसकी महत्ता का जिसको आभास-मात्र हो जाता है, उसको ये नश्वर चमकीले प्रदर्शन नहीं अभिभूत कर सकते, दूत! वह किसी बलवान की इच्छा का क्रीड़ा-कन्दुक नहीं बन सकता। तुम्हारा राजा अभी झेलम भी नहीं पार कर सका, फिर भी जगद्विजेता की उपाधि लेकर जगत को वञ्चित करता है। मैं लोभ से, सम्मान से, या भय से किसी के पास नहीं जा सकता।

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