पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
चन्द्रगुप्त
९६
 


एनि॰—महात्मन्! ऐसा क्यों? यदि न जाने पर देवपुत्र दण्ड दें?

दाण्डायायन—मेरी आवश्यकताएँ परमात्मा की विभूति प्रकृति पूरी करती हैं। उसके रहते दूसरों का शासन कैसा? समस्त आलोक, चैतन्य और प्राणशक्ति, प्रभु की दी हुई हैं। मृत्यु के द्वारा वहीं इसको लौटा लेता हैं। जिस वस्तु को मनुष्य दे नहीं सकता, उसे ले लेने की स्पर्धा से बढ़कर दूसरा दम्भ नहीं। मैं फल-मूल खाकर अंजलि से जलपान कर, तृण-शय्या पर आँख बन्द किए सो रहता हूँ। न मुझसे किसी को डर है और न मुझको डरने का कारण है। तुम ही यदि हठात् मुझे ले जाना चाहो तो केवल मेरे शरीर को ले जा सकते हो, मेरी स्वतंत्र आत्मा पर तुम्हारे देवपुत्र का भी अधिकार नहीं हो सकता।

एनि॰—बडे़ निर्भीक हो ब्राह्मण! जाता हूँ, यही कह दूँगा!— (प्रस्थान)

[एक ओर से अलका, दूसरी ओर से चाणक्य और चन्द्रगुप्त का प्रवेश। सब वन्दना करके सविनय बैठते हैं]

अलका—देव! मै गांधार छोड़कर जाती हूँ।

दाण्डायायन—क्यों अलके, तुम गांधार की लक्ष्मी हो, ऐसा क्यों?

अलका—ऋषी! यवनों के हाथ स्वाधीनता बेचकर उनके दान से जीने की शक्ति मुझमें नहीं।

दाण्ड्यायन—तुम उत्तरापथ की लक्ष्मी हो, तुम अपना प्राण बचाकर कहाँ जाओगी?—(कुछ विचारकर)—अच्छा जाओ देवि! तुम्हारी आवश्यकता है। मंगलमय विभु अनेक अमंगलों में कौन-कौन कल्याण छिपाए रहता है, हम सब उसे नही समझ सकते। परन्तु जब तुम्हारी इच्छा हो, निस्संकोच चली आना।

अलका—देव, हृदय में सन्देह है!

दाण्ड्यायन—क्या अलका?