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घृणा

सृष्टि-विस्तार से अभ्यस्त होने पर प्राणियों को कुछ विषय रुचिकर और कुछ अरुचिकर प्रतीत होने लगते हैं। इन अरुचिकर विषयों के उपस्थित होने पर अपने ज्ञानपथ से इन्हें दूर रखने की प्रेरणा करनेवाला जो दुःख होता है उसे घृणा कहते हैं। सुबीते के लिए हम यहाँ घृणा के विषयों के दो विभाग करते हैं—स्थूल और मानसिक। स्थूल विषय आँख, कान और नाक इन्हीं तीन इन्द्रियों से सम्बन्ध रखते है। हम चिपटी नाक और मोटे ओंठ से सुसज्जित चेहरे केा देख दृष्टि फेरते हैं, खरस्वन खुर्राट की तान सुनकर कान में उँगली डालते हैं और म्युनिसिपैलिटी की मैलागाड़ी सामने आने पर नाक पर रूमाल रखते हैं। रस और स्पर्श अकेले घृणा नहीं उत्पन्न करते। रस का रुचिकर या अरुचिकर लगना तो कई अंशों में प्राण से सम्बद्ध है। मानसिक विषयों की धृणा मन में कुछ अपनी ही क्रिया से आरोपित और कुछ शिक्षा-द्वारा प्राप्त आदर्शों के प्रतिकूल विषयों की उपस्थिति से उत्पन्न होती है। भावों के मानसिक विषय स्थूल विषयों से सर्वथा स्वतंत्र होते है। निर्लज्जता की कथा कितनी ही सुरीली तान में सुनाई जाय घृणा उत्पन्न ही करेगी। कैसा ही गन्दा आदमी परोपकार करे उसे देख श्रद्धा उत्पन्न हुए बिना न रहेगी।

अरुचिकर और प्रतिकूल विषयों के उपस्थितिकाल में इन्द्रिय या मन का व्यापार अच्छा नहीं लगता; इससे या तो प्राणी ऐसे विषयों को दूर करना चाहता है अथवा अपने इन्द्रिय या मन के व्यापार के बन्द करना। इसके अतिरिक्त वह और कुछ नहीं करना चाहता। क्रोध और घृणा में जो अंतर है वह यहाँ देखा जा सकता है। क्रोध का विष पीड़ा या हानि पहुँचानेवाला होता है, इससे क्रोधी